Friday, November 23, 2012

Thank you!



On one cold day in the last winter
I ran towards the train to enter.
Train started quickly like a storm,
in jiffy I dropped gloves on the platform.
Which I could only notice
when I reached the office.

I thought It was gone and
it's time to buy another one.
In the evening while returning
I saw my black gloves hanging,
gently on the corner of a bench
though because of snow' little drenched.

I picked the goves with smile
and thought for a while.
Who picked and put it there?
In this selfish world still so much care?
Since then when I find anything anywhere
I pick and hang it on a safe place near.


On the eve of this thanksgiving day
I humbly thank every one, today.
to whom I know and to the angel strangers
who contributed little or became life changers.
Who cared for me, my family and friends
I offer them love, prayer and garlands!

Wish you all a happy thanksgiving day!

Monday, November 19, 2012

हरश्रृंगार - प्रकृति का अनुपम उपहार

हरश्रृंगार एक अदभुत फूल है, छोटा सा प्यारा सा! पटल का श्वेत रंग स्वच्छता का प्रतीक, नारंगी डंडी श्रींगार का और मनमोहक भीनी भीनी खुशबु ईश्वर का प्रतीक. हर घर का श्रृंगार, प्रकृति का अनुपम उपहार.

दशहरे के समय याद कर रहा था इस फूल को. इस फूल को पूजा में चढ़ाते थे. जमीन पर गिरा फूल अपवित्र होता है. इसलिए पेड़ के जड़ के पास के जमीन को गोबर से नीपा जाता था. नीपे हुए जमीन पर गिरा फूल अपित्र नहीं माना जाता. फिर सवेरे सवेरे फूल्डाली ले के निकल पड़ते थे फूल लाने. छोटा था तो प्रेम कुमार काकी, बाबा या दाई (दादी) की उंगली पकड़ कर. कुछ बड़ा हुवा तो अकेले ही. सूर्य के उगने से पहले की लालिमा जीवन में रंग भरते. हरे घास पर ओस की बुँदे पांव धो कर स्वागत करते तो घास की जड़ की गीली मिटटी बाटा हवाई चप्पल से आलिंगन और छोटी छोटी चिड़िया प्रभात वंदना. फिर फूल तोड़ता पहले हरश्रृंगार फिर कनैल फिर बेला, गेंदा, दूब, बेलपत्र इत्यादि. फिर सीना तान के लौटता था भरा हुवा फूल्डाली के साथ. बौकी अंगना नीप रही होती थी और उसके हाथ के बाल्टी में पवित्र गोबर का लेप खचाखच भरा हुआ. घर की महिलाये महादेव बना रहे होते और पुरुष दालान पर. बिन्देसर के द्वारा लाया गया नीम का दंतमन को कोलगेट मंजन के साथ रगड़ता. फिर माटी के चूल्हे के ऊपर लोहे की लोहिया में घंटो तक उबला हुआ भैंस का खांटी दूध, स्टील के बड़े से गिलास में, एक चौथाई छाली से भरा हुआ और शक्करयुक्त. बाबा के अंगोछा में गरम गिलास पकड़ के सुरक सुरुक के पीता दूध. फिर कभी कभी साथ में मोध से भरा रोटी का रोल. जैसे ही दाई तुलसी चौरा का परिक्रम पूरा करती और बाबा के बाम ब्रू ख़तम होता दौड़ता प्रसादी के लिए.

फूल तो फूल, पत्ते का भी कम महत्व नहीं है. कितनी बार मियांदी बुखार होता तो दो हफ्ते का देहाती इलाज. नरम पत्तों को मारीच के साथ पीस के पिलाया जाता. बहुत कड़वा पर काम कर जाता. फिर इस पेड़ में छोटे छोटे फल लगते हैं जो खाया नहीं जाता. पर फल को छील अन्दर के गोटी को निकाल कर उसको आँखों के पलक में लगा के काली माई बन जाते. क्या मस्ती भरा खेल था. कभी सोचता हूँ कि दोषी हूँ अपने बच्चों का.. पता नहीं वो ये अनुभव कर पाएंगे नहीं.

चलिए एक गहरी सांस लेते हैं. रविवार ख़तम, कल ऑफिस जाना है.