Friday, December 6, 2013

यही उनकी जात है, बस भौंकना ही काम है।

लोग पग-पग पर छले,
नजर लगे जब-जब मिले,
तिल-तिल कर सदा जले,
बिन बात कालिख मले,
दिल जब परेशान हो, होता नहीं कोई काम है।

ज़माने के तानों का क्या,
तीखे वाक्-वाणों का क्या,
लोगों की बातों का क्या,
श्वानों की बारातों का क्या?
यही उनकी जात है, बस भौंकना ही काम है।

सामने कहे बड़ा होनहार,
पीठ पीछे कहे तुझमें सौ विकार,
परवाह क्या उन असुरों की,
दर्द देख कर दूसरों की,
मुस्कुराना शौक़ है, टांग अड़ाना काम है?

उपेक्षा से पूछते वो
क्या तुझमें है सिंग और पूंछ ?
विनम्रता रूपी दुम कही हिला लिया,
दबंगता का सिंग भी कभी दिखा दिया,
इनके सदुपयोग से, होता हरेक काम है।

क्रोध आया उबल गया मैं ,
शांत हुआ संभल गया मैं,
ठोकर से मैं गिरा, उठा,
ऐसा ही है जग सदा,
सब पे हँसना धर्म है, सब को डंसना काम है।

ह्रदय फटा तो रो लिया,
थक गया तो सो लिया,
जागा जब फिर चल दिया,
सुख भी जिया दुःख भी जिया
जिंदगी के सफ़र में, रुकने का नहीं कोई काम है।

अमानुषों के भीड़ में,
कुछ भलेमानुस भी मिले,
निःस्वार्थ हर मदद की,
स्नेह दिया, साथ चले,
उनके काम आऊँ सदा, ऋणी रहूँ ये काम है।

मस्त सदा व्यस्त रहूँ,
खुश रहूँ, हँसता रहूँ,
कभी न मैं बुरा बनूँ,
बुरे जो उन्हें क्षमा करुँ,
पर नाम उनका याद रख, सावधान रहना काम है।

मैं सोचता हूँ कहा से आया,
किसने मुझ को बनाया?
मंज़िल कहाँ, जाना कहाँ,
कब तक हूँ, मैं कौन हूँ?
क्या मेरा नाम है, क्या यहाँ मेरा काम है?

दूर गगन से मैं आया,
विधाता ने बनाया,
जाऊँ जहाँ मंज़िल वहाँ,
कुछ क्षण के जीवन पथ का पथिक मैं,
चल मेरा नाम है, चलता रहूँ यही काम है।

- अमिताभ रंजन झा


Monday, December 2, 2013

'चच्चे' की माँ



अमेरिका में एक छोटे से बच्चे की दादी माँ गर्भवती हो गयी। दादी माँ अल्ट्रा साउंड करवा के लौट रही थी, बेटा होने वाला था। बच्चे ने दादी माँ के पेट की तरफ इशारा कर पूछा दादी माँ ये क्या है। दादी माँ ने बच्चे के दोनों गालों को अपने हाथों में भर कर कहा : मैं तुम्हारे 'चच्चे' की माँ बनाने वाली हूँ।

- अमिताभ रंजन झा

Sunday, December 1, 2013

मंगलयान



मंगल यान ने अंतरिक्ष में सौ दिन पुरे कर लिए हैं! भारत के विज्ञानिकों को समर्पित एक कविता:

मंगलयान
भारत के वैज्ञानिकों ने दुनिया को दिखला दी ज्ञान ।
अनबुझ अनंत अंतरिक्ष में बढ़ चला है मंगलयान ।।
सफल हुयी वर्षों की मेहनत पूर्ण हो रहे सपन सुहान ।
आँखों में मन में विश्वास मेरा भारत कितना महान ।।

सात सौ करोड़ विश्व उत्सुक सौ करोड़ खड़े सीना तान ।
जोश से ताली सीटी बाजे उठ कर लोग करें सम्मान ।।
ह्रदय पर अपने रख कर हाथ श्रद्धा से गाएं राष्ट्रगान ।
उछल उछल कर देश ये बोले हिन्दुस्तान हिन्दुस्तान ।।

- अमिताभ रंजन झा

Translation:
The scientist of India showing their wisdom to world.
Mars-craft is advancing in the unknown, infinite space.
The hard work of years is a success and sweet dreams are getting fulfilled.
There is faith in eyes and heart that India is a great country.

The world of Seven billion is curious and one billion feeling proud.
People are clapping, whistling and giving standing ovation.
Signing nation anthem with their hands on their chest.
Jumping with joy and cheering India India.

Saturday, November 16, 2013

भाई


एक उदर में नौ मास रहे,
एक मात -पिता की परछाई,
एक ही घर में पले-बढ़े,
बांटा सुख-दुःख, की प्यार-लड़ाई।

काम ने हमको जुदा कर दिया,
भाग्य ने न की सुनवाई,
अलग-अलग हम शहरों में रहते,
पर प्रेम न कभी घटाई।।

कभी-कभी ही अब हम मिले जब,
घूमे-खेले, खाये मिठाई,
हफ्ते छुट्टी के क्षण में बीते,
हम ले अश्रुपूर्ण विदाई।

जिनसे मिलती हिम्मत-ताक़त,
वो मेरे हैं अनोखे भाई,
जिनके लिए समस्त है अर्पण,
वो मेरे हैं अपने भाई।।

- अमिताभ रंजन झा

Thursday, November 14, 2013

जब तक प्राण शेष है संग मिल के जिए


एक कक्ष या कक्षा में रहें साथ साथ
नित्य सुबह से लेकर देर शाम तक
लिंग का अनुपात किन्तु चिंता का विषय
एक राधा के पीछे हैं श्याम दस

विद्यालय से कार्यालय तक एक हाल है
कौन कान्हा है श्रेष्ठ राधिका का सवाल है
प्रेमी प्रेमिका प्रेम से करते रहते वार्तालाप
बांकी पंक्ति में खड़े जलते करते विलाप

जब तक प्राण शेष है संग मिल के जिए
प्रेमाग्नि के अथाह सागर में हम प्रिय
जितनी तुम प्रज्वलित उतना मैं जल रहा
ह्रदय तेरा प्रफुल्लित दिल मेरा उछल रहा

जब होती विराजमान मेरे सम्मुख समक्ष
अपलक तुम मुझे मैं तुमको देखता रहा
ईश्वर भी साथ है बात है ये सत्य प्रत्यक्ष
समय रुक जा रहा और आसमान झुक रहा

अड़चने हर मोड़ पर डाले लज्जा रिवाज़
कही मजहब का वास्ता कभी टोके समाज
आँखों आँखों में निफिक्र बात होती रही
बिन कहे दिल की बात दोनों ने कही

यज्ञ हमारा ये अब रहे हो के सफल
गर ना भी हुआ तो ना भूले ये पल
तुम वादा करों मैं भी दू ये वचन
मिले न मिले पर जियेंगे सनम

भ्रमर पुष्प के प्रेम का ये चक्र
निरंतर आज भी अब तक चल रहा
कल थामी थी हमने बागडोर
नौजवान आज से भार तुम पर रहा

- अमिताभ रंजन झा

Wednesday, November 13, 2013

Satya - Naash

Two executives Satya Prakash nick named Satya and Avinash nick named Nash (A as A not like aa) were in a meeting inside a room for long time. A colleagues comes near the room and asks another colleague sitting near the room "Who all are in room"? He replies "Satya - Naash"!

Kailo Katia and Jerald Gay

There was a time when two opening batsmen from West Indies were batting like anything. The name of major partner was Kailo Katia and other was Jerald Gay.

British government honoured Kailo Katia with Sir. Next day the news headline was Sir Kailo Katia – Jerald gay Rocks and read as Sarkailo Khatiya Jara lage rocks!

Sunday, November 3, 2013

दीवाली की हार्दिक शुभकामना!


आजकल पटाखो का प्रचलन काफी बढ़ गया है । पिछला तीन दीवाली जर्मनी में बीता।

Diwali 2012




Diwali 2011


Diwali 2010



इस वर्ष के दीवाली का इन्तजार था। पर इन तीन चार वर्षो में दीवाली काफी बदल गया है। पटाखों का शोर दीवाली के एक हफ्ते पहले से शुरू है और रुकने का नाम ही नहीं ले रहा है। सर दर्द हो रहा है।

पहले ऐसा नहीं था। बचपन के दीवाली की धूमिल यादे बाकी हैं। उस समय हम पुरे घर में तीषी तेल, किरासन तेल और घी के दिए जलाते थे। फटक्का का प्रचलन नहीं था, हुक्का लोली और संठी का जमाना था। हुक्का लोली कुछ आज कल के योयो कि तरह का होता था। पुराने धोती या साड़ी के टुकड़े को लपेट का छोटी गेंद बना ली और धोती या साड़ी के कोर से बांध दिया। फिर एक पतला तार बीच में दाल दिया। तेल में गेंद को डुबाया, आग लगायी और गोल गोल घुमाया और चिल्लाया "हुक्का लोली ". छुड़छूड़ी के बदले जूट के पौधे से निकला संठी चलता था, सफ़ेद रंग का और बहुत हलका जैसे थर्मोकोल की छड़ी। अब तो बस यादें ही हैं।

एक तरफ विज्ञान ने जीवन को बहुत आसान बना दिया है। दूसरे तरफ धरती, प्राणी और पर्यावरण पर दुष्प्रभाव भी पड़ने लगा है। हमें अच्छी बातें अपनानी चाहिए और बुरे प्रभाव का त्याग करना चाहिए। हमें पटाखो का कम प्रयोग करने की कोशिश करनी चाहिए।

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दिया तले अँधेरा सुना होगा! पर जब अनेक दिया जलते हैं तो वो एक दूसरे के नीचे के अँधेरे को को मिटा देते हैं और हर तरफ प्रकाश ही प्रकाश होता है! एकता में बल है! मिलजुल कर दीवाली मनाए!

जब कभी हो घना अँधेरा
दूर हो जब तक सवेरा
प्रकाश ज्ञान का दिया जला लो!


सब गोटाके दीपावली के हार्दिक शुभकामना!
सब रौवा लोगन के दीपावली के शुभकामना!
सब लोग के दिवाली के शुभकामना देत्ते ही!
Wish you all a happy and safe Diwali!
आप सब लोगो को दीवाली की हार्दिक शुभकामना!


- अमिताभ रंजन झा

Wednesday, October 16, 2013

तारे गिनता रहता हूँ




आधी रात आँगन में लेटा
नींद नहीं आँखों में मेरे।
आसमान छत है मेरा
धरती मेरी बिस्तर है।।
पलके झपक रही, दिल धड़क रहा
शीतल पवन झल रहा है पंखा।
ओश बनी है साक़ी मेरी
बुँदे ठुमक कर ढाल रही हैं।।

सूर्य पिताजी मेरे
काम से अब तक न लौटे।
चन्द मैया मेरी
आँगन में उजाला बांटें।।
सितारे भाई बहन मेरे
मुझसे करते हैं बातें।
दिल की धड़कन जो कहती है
वो टिमटिम करके सुनते हैं।।

जब सारी दुनिया सोती है
मीठे सपनों में खोती है।
मैं चाह के सो न पाता हूँ
बस तारे गिनता रहता हूँ।।
जन्म से ही गिनता आया
पर थोड़े से ही गिन पाया।
अभी सारे गिनना बाकी है
और कोशिश आज भी जारी है।।

ये कार्य नहीं है आसान
बाधाये करती परेशान।
कभी गिनते गिनते थक जाता
कभी गिनते गिनते रुक जाता।।
कभी मेघ को गिनना नहीं कबूल
कभी वर्षा धोके आँखों में धूल।
कभी गिनती ही मैं भुला हूँ
पर हार न मैंने मानी है।।

और कोशिश आज भी जारी है।।
और कोशिश आज भी जारी है।।

- अमिताभ रंजन झा

Tuesday, October 15, 2013

एक हजार टन सोने का खजाना


एक संत, एक नेता और एक सर्वेक्षण अधिकारी ताजमहल के पिछवाड़े बैठ कर नशा कर रहे थे। भांग , गांजा, मदिरा घंटो तक चलता रह। तीनो नशे में धुत्त होते गये और डिंग हांकने लगे।

रात में ताजमहल चम् चम् चमक रहा था. तीनो की आँखें चौंधिया रही थी। संत बोले इस ताजमहल का कुछ करना पड़ेगा। नेता बोला वो तो ठीक है पर इस ताजमहल का कुछ करना पड़ेगा। अधिकारी बोला, नहीं यार, क्या बक रहे हो? मेरी मानो तो इस ताजमहल का कुछ करना पड़ेगा। तीनो बोले इसको ध्वस्त करवा देते देते हैं।

वहा कुछ लोग सारा तमाशा रहे थे। वो उनपर हंसने लगे। वो तीनों लोगो से लड़ने और बोले हम कुछ भी कर सकते हैं। लोग हँसते हुए चले गए। कुछ समय बाद वो तीनों नशे में बेहोश हो गए। कुछ समय बाद संत को होश आया।

उसने दोस्तों को जगाया और कहा मुझे मुमताज और शाहजहाँ का अभी अभी सपना आया। उन्होंने कहा कि "यहाँ ताजमहल के नीचे एक हजार टन सोने का खजाना छुपा है।" नेता बोला मुझे भी यही सपना आया। अधिकारी ने ताजमहल खुदवाने का आदेश दे दिया।

Inspired by story Sadhu dreams of hidden gold, ASI to excavate fort in UP

- Amitabh Ranjan Jha




Friday, September 13, 2013

नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री उम्मीदवार


नरेन्द्र मोदी को बीजेपी के प्रधानमंत्री के उम्मीदवारी के लिए शुभकामना! उनके आगे खुद को गुजरात के बाहर प्रभावशाली साबित करने का भीमकाय कार्य है। अभी तक जहा जहा और जिस जिस चुनाव में वो गए, बीजेपी के परिणाम पे कोई फर्क नहीं पड़ा, कही हरी कही सरकार डूब गयी । यदि वो अगले चुनावों में जान लगाते हैं तो इसका प्रभाव गुजरात में शासन पर पड़ सकता है. यदि गुजरात के मोह को न त्याग सके तो इसका परिणाम गुजरात के बाहर पड़ सकता है।

उन्हें अब गुजरात के मुख्यमंत्री पद से शीघ्र इस्तीफा देकर अगले विधानसभा चुनावो में जान लगाना चाहिए। देश और राज्य रूपी दो नावों की सवारी में कही ऐसा न हो कि वो न देश में कही के न रहे न ही गुजरात में।



Source: Wiki

From my old post

पर कुछ डाटा प्रस्तुत करता हूँ नीचे तस्वीर में.



(Source NDTV)

ध्यान से देखिये तो बीजेपी हर तरफ माइनस में है.

हैरत कि बात है कि कांग्रेस प्लस में है, वो भी इतने घोटाले, भ्रस्टाचार, अव्यस्था, महंगाई और नाकामियों के बावजूद.

मन में सवाल आता है.

बीजेपी क्यों नहीं कांग्रेस के नाकामी का चेक भुना पाई? बीजेपी कमजोर कांग्रेस को भी पटकनी नहीं दे पा रही है. दक्षिण में कोई पूछने वाला नहीं. यू पी में नामोनिशान नहीं. बिहार में नीतीशजी के रहमो करम पर था.

कारण हो सकता है कि बीजेपी न तो कांग्रेस से अलग लगती है न ही कुछ अलग करती है.

कर्नाटक में, हिमाचल प्रदेश में बीजेपी सरकार गवा बैठी. मोदी का जादू भी चल नहीं पाया. ये हार गुजरात के बाहर मोदी के अस्तित्व पर, उनके प्रभाव पर प्रश्न नहीं लगाता? बीजेपी कभी इतना कमजोर नहीं था. क्या पार्टी मर रही है? जब अडवानीजी और अटलजी अपने चरम पर थे तो उनका प्रभाव देश के कोने कोने में दीखता था. अटलजी रिटायर हो गए, अडवानीजी ने जिन्ना प्रकरण में अपने पांव पर कुल्हारी मार ली. तब से पार्टी उस कद के नेता के लिए तरस रही है. मोदी वो चमक राष्ट्रीय स्तर पर दिखा नहीं पाए हैं. गुजरात के बाहर उनका प्रभाव नगण्य दिखता है.

यदि मोदीजी का गोल गुजरात में सिमटे रहना है तो वो कम से कम अगले पांच साल तक कामयाबी का जश्न मानाने के लिए स्वतंत्र हैं.

पर यदि मोदी की आकांक्षा दिल्ली है तो उन्हें गुजरात छोड़ना चाहिए. दिल्ली बसना चाहिए. नए सिरे से बीजेपी के उत्थान के लिए काम प्रारंभ करना चाहिए. देश भ्रमण करना चाहिए. नयी शुरुवात एक घोषणा के साथ कि गुजरात जीत के दिया बीजेपी को, अब हिन्दुस्तान देंगे.

पर क्या वो ये कर पाएंगे?

एक व्यवसायी समाज से होने के कारण ये कदम आसान नहीं होगा उनके लिए. व्यवसायी नफा नुकसान सोचते हैं, रिस्क से बचते हैं, पाई पाई का मोह रखते हैं. दिल्ली की गद्दी दूध को फूंक फूंक के पीने वाले और अपने घर में शेर बनाने वाले हासिल नहीं कर सकते. दिल्ली की गद्दी या तो विरासत में मिलती है या कर्म से या मज़बूरी से. विरासत उनके पास है नहीं, मज़बूरी या रहम शायद उनको कबूल न हो. रास्ता बचता है कर्म का.

मोदीजी को फिर से बधाई और शुभकामना.


Thursday, July 11, 2013

जन्मदिन की दुविधा


जन्मदिन पर एकांत में जब हूँ
हृदय मुझ से ये प्रश्न उठाए,
क्या किया है अब तक हासिल
जो इस दिवस को मनाए?

इर्ष्या महत्वकांक्षा जैसी बहने
मेरी दुविधा और बढ़ाए।
क्या खोया है क्या पाया है
मन-मस्तिष्क हिसाब लगाए।।

कभी सुख, सफलता का व्यंजन
विधाता थाली में सजाए।
कभी दुःख, विफलता की मिर्ची से
हमारे अन्दर आग लगाए।।

एक वर्ष और जीवन का
अपने अपनों के संग बिताए।
आओ इसकी ख़ुशी मनाए
सबका प्रभुका आभार जताए।।

अच्छी स्मृतियों को अपने
मानस पटल के एल्बम में सजाए।
बुरी यादों के चित्रों को फाड़-फाड़ कर
अंतर अग्नि में जलाए।।

पांव छुए और हाथ मिलाए
गले लगे और गले लगाए।
अगला बरस हो और भी अच्छा
सबसे ये शुभकामना पाए।।

- अमिताभ रंजन झा



Saturday, July 6, 2013

गगन चूमने की इक्षा

तेरे मस्तक को चूमने की इक्षा

ह्रदय में सदा से रही है गगन|

वर्षों से श्रम में अथक लगा हूँ

दिन रात हो कर मैं मगन||


किन्तु थक गया हूँ अब बहुत

भरसक ये अंतिम प्रयास मेरा|

जोर से मैं उछलू बाहें खोले

तुम भी कुछ सर झुकाना तेरा ||



- अमिताभ रंजन झा

Thursday, June 6, 2013

Why so much noise on RJD win?

RJD has been winning the seat in Maharajganj, so why there is so much of cry? When there is lack of choice, Indian vote for Rejection. In 2014 India will vote to reject Congress. Therefore Narendra Modi is going to be the PM of India in next election with or without JDU. And if JDU plans to go without BJP in Pariament election both BJP and JDU will lose to RJD. As BJP will form the government, RJD will continue to be in opposition. And this result will force JDU and BJP to reunite in the Assembly election. NDA's government in Center and State may help Bihar to get the special status and special package! Future looks bright for Bihar!

Thursday, April 18, 2013

घर से संसद है बहुत दूर


Favourit time pass sher of a Saansad:
Ghar se sansad hai bahut dur chalo yu kar le
Kisi haste huye bachche ko rulaya jaye!

एक सांसद का फेवरिट टाइम पास:
घर से संसद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी हँसते हुए बच्चे को रुलाया जाये।

Inspired by Nida Fazli!

Wednesday, April 17, 2013

विपरीत आकर्षण


विपरीत लिंग का आकर्षण प्रकृति का नियम है।
सब के लिए आसान नहीं सदा रखना संयम है।।
कच्ची उमर में ये सम्मोहन होता अति परम है।
उम्र ही ऐसा है नसों में दौड़ता खून गरम हैं।।

अजीब सी दिल में धड़कन बड़ी हलचल होती है।
किसी ख़ास को देखने की इक्षा पल पल होती है।।
उल्लू की तरह जागें जब सारी दुनिया सोती है।
जवां उमंगें बीज रंग बिरंगे नयन में बोती है।।

मन रूपी वीणा के झन झन तार बजते हैं।
खट्टे मीठे से ख्वाब लगातार सजते हैं।।
कोई मिलने की मिन्नतें बार बार करते हैं।
कोई हाथों के मेहंदी में अपना प्यार रचते हैं।।

आवाज़ सुन लगे कानों में मिसरी घुलता है।
दिल में उसी का नाम आयने में चेहरा दीखता है।।
एक दुसरे को पता हो ये जरुरी नहीं होता है।
मुड़ मुड़ के कोई देखता छुप छुप के रोता है।।

वो कौन है जिसने ये न महसूस किया है?
शख्स विशेष के खातिर न मदहोश हुआ है??
वो होश में रह कर भी थोड़ा बेहोश रहा है।
जमाने से डर कर भी बड़ा गर्मजोश रहा है।।

- अमिताभ रंजन झा

Monday, April 15, 2013

व्यंग: राजनीतिज्ञ द्वारा दूध दूहने का प्रतियोगिता


मंगल ग्रह पर एक बार अखिल ब्रह्माण्ड के जाने माने राजनीतिज्ञ द्वारा दूध दूहने का प्रतियोगिता आयोजित हुआ। सब नेता को अपना परिचय देना था और उनका नाम कैसे पड़ा ये बताना था और फिर दूध दूहना था। एक से एक धुरंधर आये, परिचय, नाम का कारण बताये और फिर दूध का झड़ी लगा दिये। पाँच, दस, बीस, पच्चीस लीटर।

खुराक देबामा जी का नंबर आया। खुराक ज्यादा था बचपन से ही। चौबीस घंटे माँ का दूध पीते रहते थे जब बच्चे थे। जब से बोलना सीखे हरदम कहते खुराक देबा माँ। सो नाम पड़ गया खुराक देबामा बड़े हो गए हैं, शादी भी हो गयी है, दो बेटी भी हैं. लेकिन दूध खुराक अभी भी वही है। पहले कहते खुराक देबा माँ अब कहते हैं खुराक देबा बुच्ची के माँ। आने के साथ जितनी भी महिला वहा उपस्थित थीं सबको सबसे खूबसूरत कहते गये। महिला लोग को बुरा नहीं लगा लेकिन मीडिया को बर्दाश्त नहीं हुआ। हंगामा मचा दिये। देबामा जी माफ़ी मांग के आगे बढ़े। आये एकदम गंग्नम स्टाइल में, लाये अपनी जर्सी गाय आ धराधर दूह दिए चालीस लीटर।

फिर निरंतर गोदीजी आये। जनम से अभी तक जो जो किया था सबका बखान किये। बताया निरंतर गोदी में रहते थे सो नाम पड़ा। गोदी में अब भी रहते हैं, मीडिया के, चाटुकारों के। फिर पूरा मेहनत से पंद्रह लीटर दूहे। सेक्रेटरी से पूछे इतना कम काहे हुआ? सेक्रेटरी बोले देसी गाय है जर्सी गाय का खाल पहना के लाये हैं। आप पंद्रह निकाल दिए, दुसरा पांचो लीटर नहीं निकाल सकता था. फिर सेक्रेटरी इशारा किये भीड़ के तरफ़। जज पूछा कितना है, गोदीजी बोले फ़िफ्टीन। उनके कहने से पहले तमाम मीडिया, समर्थक लोग हल्ला मचा दिये, फिफ्टी, फिफ्टी। फिफ्टीन फिफ्टी बन गया। बस स्कोरर उनको देबामा जी से भी ऊपर डाल दिया। देबामा जी मन मसोस के रह गए मन ही मन बोले बेटा जब तक हम हैं तोहरा कहियो हमरे इहा का वीसा नहीं मिलेगा।

फिर नंबर आया रहल गन्दे का. महीन स्वर में बोले हम बच्चा में गन्दा रहे थे. माँ कहती तू हरदम रहेलअ गन्दे। सो नाम पड़ गया रहल गन्दे। बोले अब भी जब साफ़ कुरता बर्दाश्त नहीं होता है, देहात में जा के मिट्टी, कचरा उठा लेते है. तलब भी पूरा हो जाता है आ वाहवाही भी मिल जाता है. धराधर तीस लीटर दुह दिए, सेक्रेटरी बोले सर छोड़ दीजिये, लोग को पता चल जायेगा स्विट्ज़रलैंड का गाय है। माँ बोली मना किये थे, कहे थे कम दूहो। सेक्रेटरी इशारा किये, भीड़ हल्ला करने लगा। जज पूछा कितना? वो बोले थर्टी। भीड़ बोला थर्टीन थर्टीन. थर्टी थर्टीन हो गया. माँ को भी चैन आया।

उसके बाद धोती कुरता में बत्तीस कुमारजी का नंबर आया। मुस्कुराए, बत्तीस दांत दिख गये। बोले जादा नहीं बोलूंगा, पेट से ही बत्तीस दांत है। सो नाम पड़ गया। इन्तजार करना पड़ा, उनका गाय नहीं आया था। सेक्रेटरी बोला सर विरोधी लोग गाय भगा दिया है।

गोदीजी एक आयोजक को इशारा किये। वो आयोजक जो दिया बत्तीस जी उसी को दुहने लगे। सुबह से शाम हो गया। रात हो गया। बेदम हो गए लेकिन दुहते रहे। जज उनका बाल्टी देखा तो पता चला एक पौवा भी नहीं था।

जज हँसा, बोल इतना देर में यही? फिर ऊपर देखा, होश उड़ गये। इ त सांड था।

बत्तीसजी बोले गोदीजी को ऊपर रहने दिजिये, उनको राज्य भी जेर्सी गाय जैसा ही मिला था। हमरा किस्मत, राज्य भी मरणासन्न सांड जैसा ही मिला था। हम तो बस भाग लेने आये हैं, रैंक का मोह नहीं है। सेक्रेटरी पुछा सर सांड से दूध? बत्तीस जी बोले बुरबक, इज्जत रखना था ना। मेहनत कर रहे थे, जो पसीना आ रहा था उसको चुनौटी के चुना में मिला के बाल्टिया में गिराते गये। जज लोग एक हफ्ता का समय देता तो गोदी को पीछे छोड़ देते। सेक्रेटरी को आँख मारे बोले जनता सब देख रही है, लेकिन वही जो हम दिखा रहें हैं।

भीड़ में टोपी पहने कुछ लोग हल्ला मचा रहे थे हरमन केजड़ेबाल को काहे नहीं बुलाये इ प्रतियोगिता में. सब प्रतियोगी मुस्कराने लगे मने मन सोच के जो आयकर बिभाग में हो कर भी दुहना नहीं सीख पाया यहाँ कैसे गाय दूह पाता। केजड़ेबाल स्टेडियके बाहर झाड़ू ले के सफाई ही करने लगे जब नहीं घुसने दिया लोग. और बड़बड़ा रहे थे हमरा देख के बचपने से हर मनके जड़े बाल एही लिए हमरा नाम हरमन केजड़ेबाल।

अमिताभ रंजन झा
Monday, April 15, 2013, Edited on 9/1/2014
http://amitabh-jha.blogspot.in/2013/04/blog-post_4696.html

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Old version

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कथा के प्रशंशा और ताली के दिए अग्रिम धन्यवाद, निंदा और गाली के लिए अग्रिम क्षमा प्रार्थना

- अमिताभ रंजन झा

शायद आपको ये व्यंग रचना भी पसंद आये।

सफल राजनीतिज्ञ मडोना कुमार

एनडीए के शातिर, यूपीए के अल्हड़!



फेसबुक/ट्विटर डोमखाना बस्ती का कुक्कुर कटौव्वल

आम आदमी(केजरीवाल ), पप्पू (राहुल) और फेंकू (मोदी) का लड़ाई इ स्तर पर पहुचता जा रहा है कि पटना के मंदिरी मोहल्ला के चीना कोठी नाला पूल के पास का डोमखाना बस्ती का कुक्कुर कटौव्वल याद आ जाता है। रोज साँझ में मर्दबा ताड़ी आ पाउच का कॉकटेल पी के पहले घरवाली को पीटता आ फिर घरवाली (गाली ) गाड़ी आ झाड़ू से तरोतार कर देती . सब गाली का रिविजन पांच मिनट में, साथ ही नए नए अविष्कृत गालिया, अनोखी, अनसोची गालिया। मन ऐसा घिना जाता कि उधर जाना छोड़ देते चाहे लम्बा कट काहे नहीं लेना पड़ता। आम आदमी(केजरीवाल ), पप्पू (राहुल) और फेंकू (मोदी) का फेसबुक/ट्विटर पेज वैसा ही हो गया है। अनलायक, अनलायक, अनलायक!

जातिवादी न समझे मुझे, जात पूछे बिना स्कूल से ही टिफिन शेयर किया है और करते रहेंगे।

Sunday, April 7, 2013

पोखर माछ मखान ह्रदय में वाणी में मोधक गंगा


सीता माता जेता के बेटी विद्यापति के जे धरती
कखनो बायढ़ के मारल आय कखनो अकाल स परती।
सरकार नेता के कुनो नै मतलब बैन क बैसल मूर्ति
बाजैथ नै मुंह में पान भरल देखैत नै छन्ही नाक में सुर्ती।।

मिथिला में दुर्लभ अछि आयओ पानी, बिजली, शिक्षा
काज उद्योग के कुनो पता नै ने स्वस्थ्य के कुनो रक्षा।
सब सुख सुविधा हमरो भेंटा हरदम मोन में रहल इक्षा
अंधकार जीवन अछि आयओ प्रगति के अछि प्रतिक्षा।।

पेट में अन्न के दाना नै आ देह पर नै अछि अंगा
भारत माँ के हम संतान अछि हमरो सपना सतरंगा।।
पोखर माछ मखान ह्रदय में वाणी में मोधक गंगा
ठोड़ पर अछि दरभंगा आ मोन में अछि तिरंगा।।

अपन हक़ के बात करै छी हम नै छी भिखमंगा
आब और बर्दाश्त नै करब किनको व्यवहार दूरंगा।
जे मैथिल हित के बात नै करता नेता हुनका देबैन ठेंगा
मिथिला के जे माथ पर रखता देबैन नबका धोती रंगा।।

पोखर माछ मखान ह्रदय में वाणी में मोधक गंगा
ठोड़ पर अछि दरभंगा आ मोन में अछि तिरंगा।।

- अमिताभ रंजन झा

The great Mithila dreams!


Monday, April 1, 2013

आज की मीरा


आज की मीरा प्रैक्टिकल,
हकीक़त में जीती है।
विष न राणा देता है
न ही मीरा पीती है।।

वो न माथा पटकती है
न दर दर भटकती है।
नैहर से ससुराल तक
सब का मान रखती है।।

अब मीरा और राणा
संग घर में रहते हैं।
कान्हे को उनके बच्चे
प्यार से मामा कहते हैं।।

उसके कान्हा की दूसरी
मीरा से शादी हो जाती है।
जिसके कान्हा को बच्चे
प्यार से मामा बुलाते हैं।।

हर राणे में कन्हैया है
हर कान्हे में राणा है।
मीरा भी समझती है
"मूव ऑन" का जमाना है।।

कुछ मीरा और कान्हा की
बात बन भी जाती है।
कुछ घर से भाग जाते हैं
कुछ की शादी हो जाती है।।

बैकुंठ धाम का कान्हा भी
चैन से बांसुरी पकड़ता हैं।
अब किसी पागल के लिए
नहीं वो धरती पर उतरता है।

- अमिताभ रंजन झा।

गृह कर्ज दुह्स्वप्न


किसानों की पुरानी जमीन बिल्डर
सरकार से मिल के ले रही है।
किसानो को सौ के भाव दे कर
हमें थव्जेंड्स पर स्कवैर फीट में बेच रही है।।
एक घर हो हमारा ये सपना
रियलटरों के भूख से मिल रही है।
अनमोल खेत जो उगलती थी सोना
अब कंक्रीट जंगल बन रही है।।

होम लोन लेना इतना है इजी
तो लोन हम सब ले रहे हैं।
चुकाना पड़ता है सूद के साथ
हम लोग फिर भी ले रहे हैं।।
सैलरी के बड़े हिस्से से
इ एम् आई समय पर दे रहे हैं।
देखा है जो घर का सपना
सूद जुर्माने में दे रहे हैं।।

नीचे चार्ट में देखिये
इस मनमानी का असर
कितना बोझ पड़ेगा
अपने हर बच्चे पर।।
पच्चीस लाख का लोन
हम पच्चीस साल का जो लें।
मेरे बच्चा तब रखे अपने घर का स्वप्न
जब महीने डेढ़ लाख कमा ले।।



*****************

देश भक्ति का भाव जाग गया है,
ओल्ड मोंक रगों मैं अब दौड़ रहा है।
इंडिया की बात है सबसे अनोखी
मेरा ह्रदय ये इंग्लिश में बोल रहा है।।

कुछ मदहोश पंक्तिया...

सारी दुनिया घूम लोगे
पर भारत देश जैसा ना पाओगे।
अमेरिका यूरोप ऑस्ट्रेलिया में भी
ऐसे महंगे सूद का दर तुम न पाओगे।।
ये देश अटके हैं आधे एक प्रतिशत पे
चालीस प्रतिशत पर कर्ज यही तुम पाओगे।
सरकारों ने लगा रखी है लगाम वहा पर
भारत सरकार सा दिल तुम कही न पाओगे।।

भारत की अध्यात्मिक सरकार
मैडिटेशन कर रही है।
योग ध्यान में डूबकर
इश्वर की तलाश कर रही है।।
कुछ बोध नहीं इसको
यहाँ पर क्या बीत रही है।
चन्द लोगों ने है लूट मचाई
देश खुद ही चल रही है।।

ये ख्वाइश है कि थोड़ी
सरकार जल्दी जाग जाये।
क्रेडिट रिपो रेट रूपी शैतान
एकदम बेलगाम हो चुकी है।।
सरकार उस पर शख्त होकर
एक बड़ी सी लगाम लगाये।
ख्वाइशें तो ख्वाइशें हैं,
हकीकत तो है वो सो रही है।।

- अमिताभ रंजन झा।


Sunday, March 31, 2013

आउटसोर्सिंग

पिछले कुछ दशक में भारत
आउटसोर्सिंग में चमक रहा है।
देश ने की है बड़ी तरक्की
गांव-घर में मोबाइल दिख रहा है।।
हमको भो हुवा है फायदा
आर्थिक जीवन पहले से सुधरा है।
अच्छी सी एक मिली है नौकरी
आँखों में सपना चमक रहा है।।

एक विदेशी कंपनी हमें
देती है थोड़ी सी तनख्वा।
जिससे परचेज कैपेसिटी
थोड़ी हमारी बढ़ गयी है।।
सौ कम्पनिया वही महँगी
न जाने क्या क्या बेच रहीं हैं।
सिर्फ रोटी कपडा मकान नहीं
गैरजरूरी सामान भी बेच रहीं हैं।।

शाहरुख़, अक्षय, विराट, धोनी .
सारे विज्ञापन ज्ञान दे रहे हैं।
खुश होकर खुशफहमी में
हम ऐसे वैसे सामन ले रहे हैं।।
एक्टर क्रिकेट के ऐड-जाल में
हम बुरे ऐसे फंसे हैं।
हम ब्रांड पर मर मिटे हैं
कर्ज फालतू में ले रहे हैं।।

पांच रूपये किलो है आलू
लेज पांच सौ में बेच रही है।
पांच रूपये का निम्बू पानी
पचास में पेप्सी बेच रही है।।
बीस रूपये में मिलती है बनयान
हजार में जॉकी बेच रही है।
पांच सौ में मिलता हैं जूता
पांच हजार में एडिडास बेच रही है।।

आउटसोर्सिंग विदेशो की जरुरत
और आज जरुरत हमारी है।
पर पांच रूपये के सामान को
पाच सौ में लेना क्या समझदारी है?
खुद की सबकी आँखें खोले
ये हमारी जिम्मेदारी है।
चीप एंड बेस्ट के लॉजिक से
स्वदेशी सब पे भारी है।।

- अमिताभ रंजन झा

आई आई एम् के फाइनेंस अलुम्नि

संस्कृत हजारों साल पुरानी भाषा है। एक कहावत सुनते आये हूँ बचपन से।

यावत जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत।

जब तक जीना
सुख से जीना
ऋण ले के भी तुम
घृत पीते जाना।

जैसे जैसे समय बदलता
रीत भी बदलती जाती है।
रिवाजो का आधुनिकरण
उसे लुप्तप्राय होने से बचाती है।
घृत में बहुत है फैट कैलोरी
जैक डेनियल अब पी जाती है
पर ऋण लेने की पावन रश्मे
सद्भाव से अब भी की जाती है।।

नए युग की नयी पीढ़ी
हम इस सिद्धांत को
बड़े शिद्दत से आज भी
निभाते जाते हैं।
गृह, वाहन, निजी, शिक्षा
ओवरड्राफ्ट, क्रेडिट कार्ड
विवाह तलाक़, इजी क्रेजी
हर लोन लेते जाते हैं।

आज के साहूकार बैंकों का
मानता हूँ मैं बड़ा लोहा।
जरुरत मंदों का शिकार करते हैं
जरुरत न हो तो भी फँसा लेते हैं।।
सौ, हजार कमाने वालों की
समझ में आती है है मज़बूरी।
लाखों कमाने वालो को भी
ताउम्र के कर्ज में डूबा देते हैं।।

आई आई एम् के फाइनेंस अलुम्नि
बड़े निपुण शयाने होते हैं।
देश के हर बच्चे को कर्ज में
कैसे डुबाये जानते हैं।।
बैंक और वित्तीय संस्थान आज के
उन्हें मुंह मांगी तंख्वाह देते हैं।
वो स्कीम बनाते रहते ऐसे
हम स्किम्ड होते जाते हैं।।

सस्ते दर पर ही शायद पर
वो भी कर्ज उठाते हैं।
ऋण लेने की पुरानी परंपरा
परम भक्ति भाव से निभाते हैं।।
फोर्ड, एप्पल, अरमानी, पेंटहाउस,
बिज़नस क्लास यात्रा, रिक्रिएशन,
फाइव स्टार, रिसोर्ट वेकेशन
सुख हर एक उठाते हैं।।

- अमिताभ रंजन झा।

*****************

Saturday, March 30, 2013

ग़ज़ल कैसे बनती है?


लोग पूछते हैं, ये सब लिख कैसे लेते हो?
ग़ज़ल कैसे बनती है?
चलिए आज ये राज खोल ही देते हैं।

ऐसा है ...

माथा काम नहीं करता
हमारी ऐसी हालत है।
दिल कहता जाता है
हाथें लिखती जाती हैं।।

आँखें बंद रहती हैं
इबादत होती जाती है।
शब्द पुष्प बंध-बंध कर
गजल गुंथती जाती है।।

आप और हम हैं
एक छोटे कश्ती में।
पांव आप के मेरे
एक नाप की जूती में।।

सुनने सुनाने का
रिवाज पुराना है।
कल ग़ालिब कहते थे
आज अपना जमाना है।।

मिर्ज़ा की बाते
हमें समझ न आती है।
आसान से लब्जों में
मेरी रूह गुनगुनाती है।।

औकात है जितनी
वही आजमाता हूँ।
चादर है जितनी
पांव फैलाता हूँ।।

भाषा के ठेकेदार
चोट करते हैं।
हंस कर कहते हैं
हम भाषा की लेते हैं।।

वो काम है उनका
वो तंज कस्ते हैं।
मेरा रंग चढ़ा उन पर
हम हँसकर कहते हैं।।

भाषाओँ का दुनिया में
इतिहास पुराना है।
शब्दों का भाषाओँ में
सदा आना जाना है।।

भाषा में थी लाली
ये सत्य गरल है।
पर बोल चाल की भाषा
कितनी सरल है।।

दिल से लिखता हूँ
अनुरोध करता हूँ।
कृपया सुन लें
मैं पाठ करता हूँ।।

मकड़जाल शब्दों से
कविता की बुनता हूँ।
आप उलझतें हैं
मैं भी उलझता हूँ।

हाल ऐ दिल अपनी
आपकी सुनाता हूँ।
दो पल साथ रहता हूँ
सुख-दुःख बताता हूँ।।

दिल में जो जज्बात
दुल्हन सी सजती है।
ग़ज़ल ऐसे बनती है
बस बन ही जाती है।।

------------------------- Old Version -----

लोग पूछते हैं, ये सब लिख कैसे लेते हो?
ग़ज़ल कैसे बनती है?
चलिए आज ये राज खोल ही देते हैं।

ऐसा है ...

माथा काम नहीं करता
हमारी ऐसी हालत है।
दिल कहता जाता है बस
और हाथें लिखती जाती हैं।।

आँखें बंद ही रहती हैं
इबादत होती जाती है।
शब्दों के फूल से बंधकर
गजल गुंथती जाती है।।

आप सब और हम भी हैं
एक ही छोटे कश्ती में।
पांव आप के और मेरे अंटे
एक नाप की जूती में।।

ये सुनने सुनाने का
रिवाज बड़ा पुराना है।
कल ग़ालिब कहते थे
आज हमारा जमाना है।।

मिर्ज़ा साहब की बाते
हमें समझ न आती है।
सीधे सादे लब्जों में
मेरी रूह गुनगुनाती है।।

औकात है जितनी अपनी
वही सदा आजमाता हूँ।
चादर है जितनी छोटी
उतने पांव फैलाता हूँ।।

उर्दू-हिंदी के धुरंधर
हमपर चोट करते हैं।
कहते हैं मुझसे हंसकर
हम उर्दू-हिंदी की बजाते हैं।।

मेरा रंग चढ़ा उनपर
हम हँसकर कहते हैं।
बोल चाल की भाषा में
भली भांति समझाते हैं।।

उर्दू-हिंदी का दिल बड़ा है
और इतिहास पुराना है।
देसज विदेसज का भी
हिंदी में ठिकाना है।।

हिंदी में लाली लगती थी
ये सत्य गरल है।
पर बोल चाल की जबान में
उर्दू-हिंदी कितनी सरल है।।

दिल के रिक्वेस्ट पे लिखता हूँ
आपसे रिक्वेस्ट करता हूँ।
थोडा एडजस्ट आप कर लें
मैं भी एडजस्ट करता हूँ।।

मकड़ी बनकर शब्दों की मैं
ताना बाना बुनता हूँ।
आप उलझतें हैं
मैं भी उलझता जाता हूँ।

हाल ऐ दिल कुछ अपनी
कुछ आपकी सुनाता हूँ।
दो पल साथ रहता हूँ
सुख-दुःख बताता हूँ।

आपसे मिले शाबाशी
मन की जाए सारी उदासी।
वाह वाह सुन आपसे
मैं यहीं गंगा नहाता हूँ।।

गया अमृतसर वैटिकन बेथलम
मथुरा काशी वैशाली वृन्दावन।
मक्का क़ाबा तिरुपति रामेश्वरम
हर तीर्थ का फल यही पाता हूँ।।

दिल में जो है जज्बात
दुल्हन सी सजती जाती है।
ग़ज़ल ऐसे बनती है
बस बन ही जाती है।।

***********************

उनके लिए .. जो लिखना चाहते हैं ...
लिखना चालू करें। ....


जिस दिन किसी को भी
ऐसी दीवानगी हो जाए।
शब्दों के घेरे में घिड़े
न जागे और न सो ही पाए।।

समझ लेना की दुनिया में
एक और शायर ज़नाब आए।
कुछ उसकी सुनी जाए
कुछ अपनी कही जाये।

- अमिताभ रंजन झा

ज़ुल्म सहने की हमको आदत है


ज़ुल्म सहने की हमको
हो चुकी बुरी आदत।
दिल रोता रहता है
हम हँसते जाते हैं।।
डर डर के जीना भी
बन जाती है ताक़त।
दिल आंशु बहाता है
हम मुस्कुराते हैं।।

लाभ हानि के गणित में
रही अपनी बुरी हालत।
सब हमसे नफा उठाते हैं
हम घाटा सहते जाते हैं।।
हर शख्स में बसा मालिक
ये सोच करे सबकी इबादत।
वो मजाक उड़ाते हैं
और हम टालते जाते हैं।।

खुदा का खौफ नहीं हमको
शख्त है उनसे मोहब्बत।
बस खुदी से घबराते हैं
और बेखुदी से डरते हैं।।
रास आती नहीं हमको
एक पल भी कभी बरकत।
बेगानों से नहीं हम अपनों के
बिछुड़ जाने से डरते हैं।।

इंसानों से नहीं डरते उनके
अंदर के हैवानियत से डरते हैं।
रंग बदलते गिरगिट से नहीं डरते
पर बदलते इंसानों से डरते हैं।।
नापाक हस्तियों के
हिफाजत में लगे हैं लोग।
हम देश के लोगो की हादसों में
शहादत से डरते हैं।।

कोई लुट रहा है देश
दोनों ही हाथ से।
हम अपने हाथ के लहसन
के कालिख से डरते हैं।।
हम अच्छों से नहीं बुरो की
वकालत से डरते हैं।
चोरो से नहीं हम सच्चों
की गैरत से डरते हैं।।

झांक के देखता हूँ
उठी किसकी है मय्यत।
हम चंद लोगो की
सूरत से डरते हैं।।
तोड़ डाला है
घर हर आइना।
अपने अक्स में छुपे
बदसूरत से डरते हैं।।

- अमिताभ रंजन झा

जमाना कहे बुद्धू संपोला माँ कहे भोला अलबेला



ज़माने का सौतेलापन
क्यों है हम जैसो से?
कोई बुद्धू समझता है
कोई कहता हमें संपोला ।।
पीठ पीछे बेदर्दी से
भोंके विष भरा खंजर।
सामने हो जब हमारे
ओढ़े अपनेपन का वो चोला।।

आखिर हम भी इंसा हैं
बिलकुल उनके ही जैसे।
हमारे भी तो अरमां हैं
और सीने में है एक शोला।।
क्या हुआ जो है हम सच्चे,
हमको छल नहीं आती?
नर्वस हो जाते हैं जब कभी,
तुतलाते भी हैं थोला।।

बहुत आसानी से सबका
हम विश्वास करते हैं।
फायदे के लिए हम जैसो का
कभी मन नहीं डोला।।
बेवफाई बेईमानी का अब तक
हमसे न कोई नाता।
ये जहर लहू में अपने
हमने अब तक न घोला।।

जलते घांव बाहर हमारे
जिस्म पर नहीं दीखते।
अन्दर झांके जब कोई
पाए बस दर्द और फफोला।।
मोहब्बत अपनी आदत
तिजारत उनकी है फितरत।
हम प्यार से मरते रहे
उन्होंने स्वार्थ से हमें तोला।।

दुनिया है बड़ी सायानी
बेशक समझती है।
हमें झुकाने के खातिर न चाहिए
बम तोप का गोला।।
भावुक, दयालु हम लजाते हैं,
हिचकिचाते हैं न कह न पाते हैं।
कोई भी जीत ले हमको
बस दे के प्यार भरा एक झोला।

हमारे सीधेपन को वो समझे
क्यों कायरता या कमजोरी?
खाक में मिल जाये कितने
जो हमने मुंह जरा खोला।।
दबा के आँशु आँखों में
रिमझिम हम बरसते हैं।
जो फट जायेंगे एक दिन
हम बरसेंगे बन के ओला।

एक माँ ही है जो मेरे
तन मन में बसती है।
वो ही है जिसने
सदा कहा मुझको भोला।।
दुनिया की बातें
जब सुन के रोता मैं।
गले लगा के कहती
जहाँ में मैं सबसे अलबेला।।

-अमिताभ रंजन झा

पासवर्ड - कविता

दुनिया कितनी बदल गयी है!

सिखाया था कभी
दुनिया को नालंदा ने।
ज़माने को चलाने के नुस्खे
अब हार्वर्ड में मिलते हैं।।

खिलाया था कभी माँ ने
आम और मीठी खीर।
माशूका के हाथों से अब
चेरी-कस्टर्ड मिलते हैं।।

कैंटीनों में कभी होते थे
तहजीब के हर शब्द।
अब तो ज्यादातर
फक और बास्टर्ड मिलते हैं।।

कुरता, दुपट्टा का जमाना
अब नहीं "रंजन"।
हर तरफ आधुनिक खयालो के
फॉरवर्ड ही मिलते हैं।।

पर एक चीज़ नहीं बदली!

पहले प्यार की यादें
हर दिल में बसते हैं।
किताबो में कभी मिलते थे
अब पासवर्ड में मिलते हैं।।

****************

चलन नहीं बाजारों में
अब शराफत का।
मुंह मांगे दामों में अब
बदचलन ही बिकते हैं।।

-अमिताभ रंजन झा

Friday, March 29, 2013

पत्ताविहीन वृक्ष


This year Germany has witnessed darkest winter in past fifty years and coldest march in past hundred years. When I walk across the road, thre trees on the both sides are waiting for leaves. I have strange feeling when I see these leafless trees. A Hindi poem dedicated to the saviour of our lives "Trees".




ठंडी हवा के झोंकों से डोलती
पत्ताविहीन वृक्ष की डालियाँ
न जाने क्या क्या कहतीं हैं?

ठण्ड ख़तम हो ऐसा लगता नहीं,
सूरज और धूप का कही पता नहीं,
ऐसा तो अक्सर होता नहीं।

प्रकृति का ये कैसा प्रहार है?
वृक्ष को पत्तों का इंतजार है।
धरा को हरयाली की दरकार है।

सर्दी से आँखें खुले ही नहीं
रोने को आंशु भी नहीं क्योंकि
कभी हवा में नमी ही नहीं।

कही बूंद आंशु के है भी तो
बर्फ सी जमी रही क्योंकि
ठण्ड में कोई कमी नहीं ।

न पत्ते न फल फिर भी जी लेती हैं
दर्द इतना, सीने में पी लेती हैं,
हवा चले तो झूम ही लेती हैं।

- अमिताभ रंजन झा



लिपट जाने से नहीं कपड़ो पर सिलवट आ जाने से डरते हैं।।

मंजूर है मुझे उनकी
घने जुल्फों की हाजत।
कहने से नहीं हम उनके
चुप रह जाने से डरते हैं।।
दिलफेंक है थोड़े
दिल की आती न हिफाजत।
सामना से नहीं हम चाँद के
छुप जाने से डरते हैं।।

उनके सामने आते ही
दिल करता है धक् धक्।
शिद्दत से नहीं हम उनके
शोहबत से डरते हैं।।
सिल जाते हैं लब हमारे
जाती चेहरे की है रंगत।
चाहत से नहीं हम उनके
संगत से डरते हैं।।

फितरत से नहीं उनके
हम कुदरत से डरते हैं।
जिल्लत से नहीं उनके
उल्फत से डरते हैं।।
नफरत से से नहीं उनके
मोहब्बत से डरते हैं।
हिकारत से नहीं उनके
शोहरत से डरते हैं।।

शिकायत से नहीं उनके
मुरौवत से डरते हैं।
क़यामत से नहीं उनके
इनायत से डरते हैं।।
रियायत से नहीं उनके
पर शराफत से डरते हैं।
बुरे हालात से नहीं हम
बुरी हालत से डरते हैं।।

शराबो के प्यालो से नहीं हम
होठों के शरबत से डरते हैं।
लिपट जाने से नहीं कपड़ो पर
सिलवट आ जाने से डरते हैं।।
बंद आँखों से नहीं उनके
अपनी संगीं नियत से डरते हैं।
उनके मासूमियत से नहीं हम
अपने रंगीं तबियत से डरते हैं।।

मुझको यकीं हैं तपा सोना
उनकी रूह ऐ पाकियत।
उनके नसीब से न हम
अपनी किस्मत से डरते हैं।।
जज्बात से नहीं
अपने आप से डरते हैं।
आज की नहीं ये बात
बड़ी मुद्दत से डरते हैं।।

सहमा सा हूँ मैं रब रूठ न जाये
दिल टूट न जाए हम टूट न जाएँ।
ज़माने को रुला दे
ऐसी है रुबैयत।।
अल्फाजों से हम
अपने ला दे एक सैलाब।
अपने इस हुनर से
काबिलियत से डरते हैं।।

प्यार में फुर्सत
पा जाने से नहीं डरते।
अपनी जिगर के
गफ़लत से डरते हैं।।
नसीम ऐ सुबोह में हम
जागने से नहीं डरते।
लेकिन जुदाई से
शब् ऐ फ़ुर्क़त से डरते हैं।।

ठान ले कर देते हैं ऐ दोस्त
साहस के इसी पर्वत से डरते हैं।
किसी के बाप से नहीं डरते
बस अपनी हिम्मत से डरते हैं।
हौसले में कोई नहीं कमी
जरा हिलो-हुज्जत से डरते हैं।
सालों कमाई है खुद्दारी की जो दौलत
इसी नाजुक इज्जत को खोने से डरते हैं।।

एक मजेदार बात याद आ रही है।
हमारे एक निहायत करीबी दोस्त थे।
साहबजादे को एक सौ किलो की हसीना से प्यार हो गया।
पर उसके छः मुस्टंडे भाइयों से वो डरते थे।

तो यदि वो लिख रहे होते तो लिखते ...

बेशक दिलोजान से
चाहता हूँ उनको मैं ऐ दोस्त।

उठाने से नहीं उनको
खुद उठ जाने से डरता हूँ।।

भरी जवानी में कंधो पे
जाने से डरता हूँ।

उनके शहर में भी
अब जाने से डरता हूँ।।

फिर कुछ महीनो बाद वालिद के बुलावे पे गांव गए।
दरवाजे पर पांव रखते ही माशुका के सभी भाई से नैन मिल गए।
सिट्टी पिट्टी ग़ुम, उनके होश उड़ गए ।
एक भाई ने उन्हें संभाला, कोने में ले गए,
चेहरे पर पानी डाला, वो जग गए ।

फिर पुछा जिस दिन उन्होंने बहन से मिलते देखा था,
क्यों वो भागे थे और फरार कहा थे?

बात बात में, बात खुल गयी, बेचारे वो रिश्ते को राजी थे।

फिर क्या था?
दोनों का निकाह हो गया धूम धाम से।

अब इनके छह बेटे हैं
और एक बेटी।

- अमिताभ रंजन झा


Monday, March 25, 2013

Darkest Winter - Coldest Easter

Some how we counted the days and survived
the darkest Winter in fifty years!

And when we thought winter is over,
came coldest March in 100 years!

O my lord we have no more patience,
show some mercy and wipe our tears!

Next week is Easter and still chilling weather
God give us sunshine and warm atmosphere!



Most difficult days in Germany! Freezing, trembling, chilling!

-Amitabh Ranjan Jha




Sunday, March 24, 2013

Vier - Null

फियर नूल
Today India white-washed Australia in Cricket and I SHOUT Vier - Null (फियर - नूल).

(In German Vier is Four and Null is 0! V is said as F.)

Some memory:
In 2010 Football (Soccer) world cup Germany had beaten stong competitor Argentina 4 - 0 to reach the semi-final. I witnessed the grand celebration in Esslingen. I was walking on a small street on HirshclandStr near Hirsch Apotheke in Oberesslingen. I saw a small kid (three or fours years) just telling me vier null! I could see the passion and spirit in his eyes which was not new. Once I had same spirit for Cricket!

Esslingen Soccer Celebration Videos








There is Ram (God) in Harami


Hinduism says there is Ram (The incarnation of God) in every living. In hindi or urdu Harami is the word for Bastard. This word too have Ram in it. One should not hate such kids, instead help!

Saturday, March 16, 2013

पटना न्यू मार्केट - फ़्रंकफ़र्ट मेसे


पिछले हफ्ते जर्मनी के फ़्रंकफ़र्ट (माईन)में एक विज्ञान मेल में गया। रंग और रौशनी से नहाया हुआ। बेहद खुबसूरत बड़े छोटे स्टाल। नए प्रोडक्ट्स जिसे देखकर मुंह से निकले वाँव, अद्भुत! लोगो की भीड़। पांव रखने की जगह नहीं। एक स्टाल पे बहुत भीड़ थी। मैं भी पीछे खड़ा हो गया। प्रोजेक्टर पर एक शख्स नए प्रोडक्ट्स दिखा रहा था। वही भीड़ में एक आदमी पर नजर टिकी। ब्लैक सूट, हाथ में आई पैड। जैसे जैसे प्रोजेक्टर पर इमेज आते वो फोटो लेते जाता। स्क्रीन दर स्क्रीन। एक पल नजरे मिली फिर वो दुसरे स्टाल की तरफ बढ़ गया। आँखों ने अलग तरह का चोर देखा और चोरी भी। पुरानी बात याद आ गयी।


बात उन दिनों की है जब मैं हाई स्कूल में था। पटना के न्यू मार्केट में लगभग रोज का आना जाना था हर छोटे बड़े सामान के लिए। एक दिन की बात है, मैं मार्किट के पतली गली में घूम रहा था। ये वो जगह है जिसके के एक छोड़ पर हनुमान मंदिर है और दुसरे पर सब्जी बाजार। आधी सड़क पर कब्ज़ा दोनों तरफ दुकानदारो का, चौकी डाल दी, भरे बोरे रख दिए, ऊपर प्लास्टिक डाल दिया। और छोटे छोटे ठेले वाले सड़क के बीच में ठेले लगा देते। मार्केट में पांव रखने की जगह नहीं मिलती।

एक ठेले वाले से एक नेल कटर लिया। दूकानदार चौदह पंद्रह साल का लड़का ही था। उसको दस का नोट दिया। उसके पास खुदरा नहीं था। तभी एक और आदमी ठेले पर आया। लम्बा , दुबला पतला, सांवला। मटमैला सा धोती कुरता पहने। वो भी सामान देखने लगा। लड़के ने जो दाम बताया वो सुन कर जाने लगा। लड़का मुझसे बोला खुदरा ले के आते हैं। इधर लड़का गया और उधर वो आदमी वापस आया और झट से कुछ सामान ठेले से उठाया, कुर्ते के जेब में डाला. एक पल नजरे मिली और वो तेज कदम से भीड़ में गायब हो गया। ऐसा मैंने कभी देखा नहीं था। आँख के सामने चोरी दखी थी और चोर को भी। इस से पहले चोर के बारे में सुना था, अखबार में पढ़ा था। और चोर शब्द सुन कर सिहरन होती थी। पर उस समय जो देखा, स्तब्ध रह गया। चोर हमारी तरह इंसान निकला। एक पल के लिया सोचा हल्ला करूँ, चोर चोर। पर तरस आया, एक दो रूपये के सामान की बात थी।



-अमिताभ रंजन झा

Saturday, March 9, 2013

बौवा, लाल, बड़का, छोटका, नूनू, पढ़ुआ

गांव में कभी नाम लगाया जाता था। दो दोस्त एक दुसरे के लिए एक ही नाम का प्रयोग करते थे। स्नेह, प्रेमकुमर, गुलाबजल, डिअर।

कि स्नेह - त - हाँ स्नेह, कि प्रेमकुमार - त - हाँ प्रेमकुमार, कि गुलाबजल - त - हाँ गुलाबजल, कि डिअर - त - हाँ डिअर।

घर घर में नामकरण का भी रिवाज होता था। कितने सारे पुकारू नाम। बूरहा, बौवा, लाल, बड़का, छोटका, छोटू, नूनू, पढ़ुआ। बाबा, दादा, नाना, कक्का, मामा, पीसा, मौसा, भाईजी सबके लिए।

बौवा नाम तो हर घर में हर जनरेशन में होता। बौवा भाईजी, कक्का, मामा। बगल के बूढ़ा बाबा दरवाजे पर पुकार लगाते "बौवा छी यौ"? एक साथ आवाज आती हाँ भाईजी, हाँ कक्का, हाँ बाबा।

जो बूढ़े होते वो बूरहा भय्या, कक्का, पीसा, मामा, मौसा।

जो बड़े वो बड़का। छोटे छोटका, छोटे, छोटू, नुनू। जो मंझले वो लाल। जो ज्यादा पढ़े लिखे विद्वान वो पढ़ुआ।

शिक्षा या व्यवसाय के हिसाब से भी नाम। मुखिया, मास्टर, मनेजर, डॉक्टर, इंजिनियर, वकील, ओभरसियर।

स्त्रीलिंग भी होता। बडकी दाय, दादी, नानी, काकी, मौसी, मामी, दीदी। डॉक्टर काकी, वकील मामी।

नामकरण के अनेक कारण होते। संजुक्त परिवार होता था, बड़ा सा। एक घर में दस कक्का। एक कक्का कभी बोले, बाबूजी के कहियौन कक्का बजा रहल छैथ। बाबूजी पूछे "कून कक्का"? इंजिनियर कक्का!
अपने से बड़े का नाम लेना कुसंस्कार माना जाता, ये दूसरा कारण। और जब ये कोई पुकारू नाम लेकर पुकारता तो समझ जाते, कोई घर का है। बहार वाले फॉर्मल नाम बुलाते। ये अलग फायदा।

घर आई नयी बहू का भी नया नाम रखा जाता। उमरावती, कुसुमावती, कलावती, पद्मावती, राधे बौवासीन, श्यामा बौवासीन। उद्देश्य शायद ये कि उनका ससुराल में आना नए जनम की शुरुवात। सो नया नाम। दूसरा कारण ये कि जो उनका नाम होता वो पहले से घर में किसी का होता।

घर में जो काम करनेवाली होती उनका नाम उनके गांव से नाम से जोड़ कर बनता। भज्परौल वाली, रामनगर वाली।

समय बदलना शुरू हुवा। दादी माँ, काकी माँ का प्रचलन शुरू हुआ। हम कक्का, मामा, दीदी, भाईजी को नाम से बुलाने लगे।

हम बड़े होते गए। शिक्षा और नौकरी के लिए घर से, रिश्तों से दूर होते गए। हमारे बच्चे उस अपनापन से दूर।

पता भी नहीं चला कि कब हम पिज़्ज़ा, बर्गर, कोका कोला, लेज़, पेस्ट्री पर पलने वाले नुक्लेअर फॅमिली बन गए।

अब सारे रिश्तेदार को नाम के साथ पुकारते हैं बच्चे।

नितीश कक्का का जन्मदिन है आज, फेसबुक पर विश कर दीजियेगा।

- अमिताभ रंजन झा

Monday, February 25, 2013

पटना के अजायल मॉडल

पटना के मंदिरी मोहल्ला में बचपन गुजरा। एक साहूजी थे। उनके बारे में सुना कि एक समय था, वो बिलकुल फक्कर थे। एक बड़े साहूजी के यहाँ काम करते थे। जब पटना में बाढ़ आया तो, राहत का सामान कुछ इधर कुछ उधर कर के कुछ पूंजी जमा कर ली। अपना छोटा दुकान खोल लिया, किराने का। एक गाय खरीद लिया, दूध भी बेचते पानी के साथ। जमीन का छोटा टुकड़ा भी ले लिया और छोटा घर बना लिया एस्बेस्टस का। थोड़ा पूंजी और जमा हुआ, एस्बेस्टस निकलवा के पक्का घर। फिर एस्बेस्टस से फर्स्ट फ्लोर पर एक कमरे का घर। उसको किराये पर दे दिया। किरायेदार को दूध और किराना का भी सामान बेचते, उधारी में। कुछ समय बाद किरायेदार की शादी तय हो गयी। बोला एक कमरे में गुजर न होगा। साहूजी एस्बेस्टस का एक और कमरा बनवा दिए। फिर दो से चार कमरा हो गया कुछ समय में, दुसरे किरायेदार के लिए। फिर अपने उनका परिवार बड़ा होने लगा। तो ऊपर का एस्बेस्टस निकाल के पक्का बना दिए फर्स्ट फ्लोर को और सेकंड फ्लोर को एस्बेस्टस का बना दिए। लास्ट टाइम देखा था तो उनका घर चार फ्लोर पक्का था और पांचवा फ्लोर एस्बेस्टस का। दुकान भी बड़ा हो गया था और गाय की संख्या भी बढ़ गयी थी।

आज मैं सॉफ्टवेर आर्किटेक्ट हूँ। दस साल में कितने सारे प्रोजेक्ट की। सारे प्रोजेक्ट साहूजी के घर का मॉडल, एकदम अजायल!

और ये मॉडल पूरा पटना और पूरा इंडिया में मिलेगा।

ध्यान देने योग्य बात है कि साहूजी का घर साढ़े चार तल्ले तक खीच पाया क्योंकि नींव मजबूत होगा। सो प्रयास होना चाहिए कि नींव मजबूत हो।

- अमिताभ रंजन झा

I grew up at Mandiri area in Patna. There used to be a Sahuji. Sahuji is a word used for person belonging to business community. There was a time when he was pennyless. He used to work at a rich Sahuji's shop. Then came the big flood in Patna during seventies. He could manage to earn some capital by doing monkey business with flood relief packages. In short, as soon as the relief bags were dropped he could grab them and then hide them. Later he used to sell and earn money.

With the money he could open a small grocery shop. Also he bought a piece of land and constructed a small house with Asbestos roof. Slowly his capital grew. He removed the Asbestos and moulded his house roof with concrete. And he constructed one room house with asbestos on first floor and given it for rent. Also he offered grocery to the renter and others on monthly credit. After sometime, the renter got engaged with a girl. He said, one room is insufficient. So Sahuji constructed one more room for him. Later he constructed more rooms and gave for rent too. Time came when his family also became bigger. He made the second floor concrete and moved asbestos to third floor. Last time when I saw, his house was having four concrete floors and an asbestos flat on top.

Today, I am a software Architect. In last decade, I have delivered many projects. Interestingly all the projects I have done followed the Sahuji's house model, pure Agile!

You will find this model in whole Patna and in every corner of India.

Agile Patna, Agile India!

One thing need to be noticed that Sahuji's house could be extended to four and half storeys because the foundation was strong.

Moral: Work on basics and make the foundation strong!

Wiki - Agile:
Agile software development is a group of software development methods based on iterative and incremental development, where requirements and solutions evolve through collaboration between self-organizing, cross-functional teams. It promotes adaptive planning, evolutionary development and delivery, a time-boxed iterative approach, and encourages rapid and flexible response to change. It is a conceptual framework that promotes foreseen interactions throughout the development cycle. The Agile Manifesto[1] introduced the term in 2001.

Sunday, February 17, 2013

Photography Cheet Sheet



This is photography cheet sheet I created from my experience in past three years with Cannon EOS 550D.

You can start with this guideline. This may not work exact sometimes. As the photo is darker/brighter, accordingly try increasing/decreasing Shutter (Tv), Aperture (Av) values till you get the sweet spot.


Happy photography!




Monday, February 4, 2013

बेडिंग



जमाना सचमुच बदल गया है।

किसी को याद है बेडिंग और बेडिंग कसने की? चलिए चलते हैं कुछ दशक पहले।

अब हम सफ़र के वक़्त बेडिंग ले के नहीं चलतेहैं। पिछली बार आप कब चले थे बेडिंग ले के?

मैं अंतिम बार लाया था 1998 में जब पटना से बैंगलोर आ रहा था, पहली बार यूपी बिहार से बाहर निकला था वो भी 3000 किलोमीटर दूर। एक हफ्ते में घर याद आने लगा था। याद है, एक दिन बाबूजी से फ़ोन पर बात करते करते फ़ोन बूथ में ही रो पड़ा था। एक ही रट, नहीं रहना है यहाँ, मुझे वापस आना है। बाबूजी की आवाज भी भर्रा गयी थी, पर समझाते रहे बेटा पटना में कुछ खास फ्यूचर नहीं होगा तुम्हारा। पंद्रह साल हो गए, साबित हो गया, बाबूजी सही थे। बैंगलोर ने बहुत कुछ दिया है। एक कविता से आभार प्रकट करने की कोशिश की - "सपनो का शहर बैंगलोर "।

खैर बेडिंग पर वापिस आते हैं।

याद है, उन दिनों जहा भी जाना होता, बेडिंग ले जाना तय था।

आज कल के पीढ़ी को शायद पता न हो सो थोड़ी विवरण की कोशिश करता हूँ।

बेडिंग बोरिया बिस्तर ढोने का सामान। कही जाये तो सोने की परेशानी नहीं। बेडिंग मोटे कपड़े का होता था। छे सात फुट लम्बा और तीन चार फुट चौड़ा। गहरे कलर का। विपरीत छोरों पर डेढ़ दो फुट का खोल होता। इसमें तोशक के लम्बाई के विपरीत छोड़ घुसाए जाते। फिर दो बेल्ट होते सात आठ फुट लम्बे, बंधने के लिए। और एक कपड़े का ही हैंडल होता, पकड़ के उठाने के लिए।

यात्रा से पहले बेडिंग खोजा जाता। फिर अखबार जमीन पर बीछा कर उसको ऊपर रखा जाता। सबसे नीचे सतरंजी। फिर तोशक। ठीक से मोड़ के। तोशक बेडिंग से चौड़ा होता था। तो उसको हुनर से मोड़ना होता था। जाड़ा हो तो रजाई। फिर बिछाने का चादर, ओढ़ने का सिल्केन चादर। अब बारी तकियों की। उन्हें बेडिंग के लम्बाई के दोनों विपरीत छोरो पर के खोल में घुसाया जाता। फिर अखबार में लपेट कर हवाई चप्पल। पूरा ठस्सम ठस्स।

अब उसको बांधना।

तरीके से दोनों विपरीत छोरों को मोड़ा जाता। फिर एक छोड़ अन्दर और दूसरा उसके ऊपर। फिर बेडिंग बेल्ट कसना। एडजस्ट करना। उसके ऊपर बैठ के, कोहनी से, घुटना से किसी तरह दबाना की साइज़ कम जाये। फिर बेल्ट को इस तरह फसाना की यात्रा में बेल्ट पकड़ के उठाने वक़्त खुल न जाये।

बेडिंग कसना कला है कला। सबके बस की बात नहीं। बल भी चाहिए और बुद्धि भी।

छोटा था तो बगल के चाचा लोग मदद करते। बड़ा हुआ तो भय्या लोगो को बुलाता। जाता बुलाने। जा रहे हैं बाहर। बेडिंग कसना है। वो तुरत राजी। बल प्रदर्शन का मौका कौन छोड़ता है। और अच्छा पडोसी का फर्ज भी निभ जाता। वापस लौटने पर उनके लिए देहाती पेंडा, लड्डू, खाजा, अमरुद कुछ भी सौगात ले आते। अगली बार भी तो बेडिंग बंधवाना होता था।

फिर हम खुद बड़े हो गए। बेडिंग कसने के कला में धुरंधर। अब तो वो कला गया, कब के भूले। पर शायद बेडिंग कसना भी तैराकी की तरह है। आप कभी नहीं भूलते। लगता है भूल गए, पर भूलते नहीं।। वो कला अब लुप्त्प्रै है। शायद।

हमारे बच्चे कभी ये अनुभव कर सकेंगे?

घर का बना पेंडा, भैंस का दूध। खेत का गन्ना, हरा चना, कच्चा मूंग खेत में तोड़ छील कर खाना। आग में पकाया अल्हुआ, मकई ओरहा। और भी बहुत कुछ शुद्ध, प्राकृतिक और देहाती! शायद समय आएगा, हमारे बच्चे टूरिस्ट बनके अपने ही गांव जायेंगे और ये अनुभव प्राप्त करने की कोशिश करेंगे।

आइये बेडिंग को हार्दिक श्रधांजलि मिल के देते हैं! दो मिनट का मौन आँख बंद कर के।

Sunday, January 20, 2013

राहुल गाँधी को बहुत बहुत शुभकामना!


कांग्रेस राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाने के बाद आज राहुल गाँधी का पहला भाषण सुना!

काफी बाते अच्छी लगी.

वो कांग्रेस की कमियों को गिनाते हैं, उस हद तक बदलाव की बात करते हैं जिसको कहने की साहस किसी भी पार्टी के धुरंधर राजनीतिज्ञ भी नहीं कर पातें हैं. इस समय जब सबकी आँखें २०१४ तक ही देख पा रही हैं वो उससे कही आगे कि दृष्टि रख रहे हैं. आखिर क्यों नहीं? इस समय भारत की राजनीती में उनके सिवा कोई दूसरा नहीं है जो इतने आगे तक सोच रख सके. एक वही है जो आने वाले सालो तक निर्विवाद निर्विरोध नेतृत्व दे सकते हैं. कारण है कि अब तक का इतिहास गवाह है, भारत की राजनीती गाँधी परिवार के बिना नहीं चलती है. एक तरफ कांग्रेस उनसे एकजुट रहती है. तो दूसरी तरफ अन्य पार्टियां उनके खिलाफ आग उगल कर राजनीती करती है. और ये सिलसिला जारी रहेगा ऐसा लगता है.

जब वो बोलते हैं तो लगता है हम में से कोई आम आदमी बोल रहा है जो साधारण है, सीधा सादा है और जो सपने देखता है और उन सपनो को पुरे करने का प्रयास करता है. हारता है पर टूटता नहीं है, और हिम्मत से उठकर आगे बढ़ता है. व्यक्तिगत कटाक्ष नहीं करता है, कीचड़ नहीं फेंकता, दुसरे को नीचा दिखने की कोशिश नहीं करता है.

पहले भी वो अपने अलग अंदाज से लोगो का ह्रदय जिनते का प्रयास करते रहे हैं. जब किसी भी पार्टी के वरीय और कनिष्ठ आरामतलब नेतागण वतावान्कुलित कक्ष में आराम फरमा रहे होते, वो देश के किसी कोने में कंधे पर बोझ ढो रहे होते, गरीब के घर भोजन और विश्राम कर रहे होते. उन्हें बच्चा बोल जाता, नौटंकीबाज कहा जाता, ऐसे शब्द बोले जाते हैं जिससे कोई भी तिलमिला जाये. पर वो उस स्तर पर नहीं उतरते हैं. देखना है वो भारत की राजनीती की तस्वीर बदल पाएंगे या भारत की राजनीती उन्हें बदल देगी. देखना है कि वो वही सीधे सादे व्यक्ति बने रहेंगे या घाघ एवं कटुभाषी राजनीतिज्ञ में तब्दील होंगे.

आशा है उनके नेतृत्व में कांग्रेस और देश नयी ऊँचाइयों को चूमेगा. किन्तु रास्ता आसान नहीं होगा. देश की एक एक समस्या और देशवासी उनका पग पग पर इम्तिहान लेते रहेंगे.

राहुल गाँधी को बहुत बहुत शुभकामना!


Saturday, January 12, 2013

सिक्को का गुल्लक

बूँद बूँद जमा करता रहा है ताजिंदगी
डूबा रहता है घड़ा भरने के खयालो में
इस ख्वाब से निकल पागल, नेता बन जा
पराये घड़ो से भर ले सागर चंद सालो में

कब तक रखेगा सिक्को का गुल्लक
पुरानी अलमारी के अन्दर, बंद तालों में
नेता बन और मकरी से सिख तरक़ीब
कैसे फंसाते हैं दुसरो को मकड़जालों में

कब तक नलके से भरता रहेगा पेट
ढूँढता रहेगा स्वाद बासी निबालों में
नेता बन देश चला दिन के उजाले में
अँधेरे में डूब गालों में बालों में प्यालों में

-अमिताभ रंजना झा

Hate Cigarette packs of today


I have been a teetotaler through my life. But I extremely hate the Cigarette packs of today. They make me extremely uncomfortable. What's the motive to put such sick picture? To discourage people from smoking? Why not ban cigarette manufacturing, the root cause?

Most of the government not willing to ban manufacturing becuase that brings lot of revenue. So the scary image is just and eyewash and basically an stupid act of playing with the emotion of the somkers.