Sunday, March 31, 2013

आउटसोर्सिंग

पिछले कुछ दशक में भारत
आउटसोर्सिंग में चमक रहा है।
देश ने की है बड़ी तरक्की
गांव-घर में मोबाइल दिख रहा है।।
हमको भो हुवा है फायदा
आर्थिक जीवन पहले से सुधरा है।
अच्छी सी एक मिली है नौकरी
आँखों में सपना चमक रहा है।।

एक विदेशी कंपनी हमें
देती है थोड़ी सी तनख्वा।
जिससे परचेज कैपेसिटी
थोड़ी हमारी बढ़ गयी है।।
सौ कम्पनिया वही महँगी
न जाने क्या क्या बेच रहीं हैं।
सिर्फ रोटी कपडा मकान नहीं
गैरजरूरी सामान भी बेच रहीं हैं।।

शाहरुख़, अक्षय, विराट, धोनी .
सारे विज्ञापन ज्ञान दे रहे हैं।
खुश होकर खुशफहमी में
हम ऐसे वैसे सामन ले रहे हैं।।
एक्टर क्रिकेट के ऐड-जाल में
हम बुरे ऐसे फंसे हैं।
हम ब्रांड पर मर मिटे हैं
कर्ज फालतू में ले रहे हैं।।

पांच रूपये किलो है आलू
लेज पांच सौ में बेच रही है।
पांच रूपये का निम्बू पानी
पचास में पेप्सी बेच रही है।।
बीस रूपये में मिलती है बनयान
हजार में जॉकी बेच रही है।
पांच सौ में मिलता हैं जूता
पांच हजार में एडिडास बेच रही है।।

आउटसोर्सिंग विदेशो की जरुरत
और आज जरुरत हमारी है।
पर पांच रूपये के सामान को
पाच सौ में लेना क्या समझदारी है?
खुद की सबकी आँखें खोले
ये हमारी जिम्मेदारी है।
चीप एंड बेस्ट के लॉजिक से
स्वदेशी सब पे भारी है।।

- अमिताभ रंजन झा

आई आई एम् के फाइनेंस अलुम्नि

संस्कृत हजारों साल पुरानी भाषा है। एक कहावत सुनते आये हूँ बचपन से।

यावत जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत।

जब तक जीना
सुख से जीना
ऋण ले के भी तुम
घृत पीते जाना।

जैसे जैसे समय बदलता
रीत भी बदलती जाती है।
रिवाजो का आधुनिकरण
उसे लुप्तप्राय होने से बचाती है।
घृत में बहुत है फैट कैलोरी
जैक डेनियल अब पी जाती है
पर ऋण लेने की पावन रश्मे
सद्भाव से अब भी की जाती है।।

नए युग की नयी पीढ़ी
हम इस सिद्धांत को
बड़े शिद्दत से आज भी
निभाते जाते हैं।
गृह, वाहन, निजी, शिक्षा
ओवरड्राफ्ट, क्रेडिट कार्ड
विवाह तलाक़, इजी क्रेजी
हर लोन लेते जाते हैं।

आज के साहूकार बैंकों का
मानता हूँ मैं बड़ा लोहा।
जरुरत मंदों का शिकार करते हैं
जरुरत न हो तो भी फँसा लेते हैं।।
सौ, हजार कमाने वालों की
समझ में आती है है मज़बूरी।
लाखों कमाने वालो को भी
ताउम्र के कर्ज में डूबा देते हैं।।

आई आई एम् के फाइनेंस अलुम्नि
बड़े निपुण शयाने होते हैं।
देश के हर बच्चे को कर्ज में
कैसे डुबाये जानते हैं।।
बैंक और वित्तीय संस्थान आज के
उन्हें मुंह मांगी तंख्वाह देते हैं।
वो स्कीम बनाते रहते ऐसे
हम स्किम्ड होते जाते हैं।।

सस्ते दर पर ही शायद पर
वो भी कर्ज उठाते हैं।
ऋण लेने की पुरानी परंपरा
परम भक्ति भाव से निभाते हैं।।
फोर्ड, एप्पल, अरमानी, पेंटहाउस,
बिज़नस क्लास यात्रा, रिक्रिएशन,
फाइव स्टार, रिसोर्ट वेकेशन
सुख हर एक उठाते हैं।।

- अमिताभ रंजन झा।

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Saturday, March 30, 2013

ग़ज़ल कैसे बनती है?


लोग पूछते हैं, ये सब लिख कैसे लेते हो?
ग़ज़ल कैसे बनती है?
चलिए आज ये राज खोल ही देते हैं।

ऐसा है ...

माथा काम नहीं करता
हमारी ऐसी हालत है।
दिल कहता जाता है
हाथें लिखती जाती हैं।।

आँखें बंद रहती हैं
इबादत होती जाती है।
शब्द पुष्प बंध-बंध कर
गजल गुंथती जाती है।।

आप और हम हैं
एक छोटे कश्ती में।
पांव आप के मेरे
एक नाप की जूती में।।

सुनने सुनाने का
रिवाज पुराना है।
कल ग़ालिब कहते थे
आज अपना जमाना है।।

मिर्ज़ा की बाते
हमें समझ न आती है।
आसान से लब्जों में
मेरी रूह गुनगुनाती है।।

औकात है जितनी
वही आजमाता हूँ।
चादर है जितनी
पांव फैलाता हूँ।।

भाषा के ठेकेदार
चोट करते हैं।
हंस कर कहते हैं
हम भाषा की लेते हैं।।

वो काम है उनका
वो तंज कस्ते हैं।
मेरा रंग चढ़ा उन पर
हम हँसकर कहते हैं।।

भाषाओँ का दुनिया में
इतिहास पुराना है।
शब्दों का भाषाओँ में
सदा आना जाना है।।

भाषा में थी लाली
ये सत्य गरल है।
पर बोल चाल की भाषा
कितनी सरल है।।

दिल से लिखता हूँ
अनुरोध करता हूँ।
कृपया सुन लें
मैं पाठ करता हूँ।।

मकड़जाल शब्दों से
कविता की बुनता हूँ।
आप उलझतें हैं
मैं भी उलझता हूँ।

हाल ऐ दिल अपनी
आपकी सुनाता हूँ।
दो पल साथ रहता हूँ
सुख-दुःख बताता हूँ।।

दिल में जो जज्बात
दुल्हन सी सजती है।
ग़ज़ल ऐसे बनती है
बस बन ही जाती है।।

------------------------- Old Version -----

लोग पूछते हैं, ये सब लिख कैसे लेते हो?
ग़ज़ल कैसे बनती है?
चलिए आज ये राज खोल ही देते हैं।

ऐसा है ...

माथा काम नहीं करता
हमारी ऐसी हालत है।
दिल कहता जाता है बस
और हाथें लिखती जाती हैं।।

आँखें बंद ही रहती हैं
इबादत होती जाती है।
शब्दों के फूल से बंधकर
गजल गुंथती जाती है।।

आप सब और हम भी हैं
एक ही छोटे कश्ती में।
पांव आप के और मेरे अंटे
एक नाप की जूती में।।

ये सुनने सुनाने का
रिवाज बड़ा पुराना है।
कल ग़ालिब कहते थे
आज हमारा जमाना है।।

मिर्ज़ा साहब की बाते
हमें समझ न आती है।
सीधे सादे लब्जों में
मेरी रूह गुनगुनाती है।।

औकात है जितनी अपनी
वही सदा आजमाता हूँ।
चादर है जितनी छोटी
उतने पांव फैलाता हूँ।।

उर्दू-हिंदी के धुरंधर
हमपर चोट करते हैं।
कहते हैं मुझसे हंसकर
हम उर्दू-हिंदी की बजाते हैं।।

मेरा रंग चढ़ा उनपर
हम हँसकर कहते हैं।
बोल चाल की भाषा में
भली भांति समझाते हैं।।

उर्दू-हिंदी का दिल बड़ा है
और इतिहास पुराना है।
देसज विदेसज का भी
हिंदी में ठिकाना है।।

हिंदी में लाली लगती थी
ये सत्य गरल है।
पर बोल चाल की जबान में
उर्दू-हिंदी कितनी सरल है।।

दिल के रिक्वेस्ट पे लिखता हूँ
आपसे रिक्वेस्ट करता हूँ।
थोडा एडजस्ट आप कर लें
मैं भी एडजस्ट करता हूँ।।

मकड़ी बनकर शब्दों की मैं
ताना बाना बुनता हूँ।
आप उलझतें हैं
मैं भी उलझता जाता हूँ।

हाल ऐ दिल कुछ अपनी
कुछ आपकी सुनाता हूँ।
दो पल साथ रहता हूँ
सुख-दुःख बताता हूँ।

आपसे मिले शाबाशी
मन की जाए सारी उदासी।
वाह वाह सुन आपसे
मैं यहीं गंगा नहाता हूँ।।

गया अमृतसर वैटिकन बेथलम
मथुरा काशी वैशाली वृन्दावन।
मक्का क़ाबा तिरुपति रामेश्वरम
हर तीर्थ का फल यही पाता हूँ।।

दिल में जो है जज्बात
दुल्हन सी सजती जाती है।
ग़ज़ल ऐसे बनती है
बस बन ही जाती है।।

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उनके लिए .. जो लिखना चाहते हैं ...
लिखना चालू करें। ....


जिस दिन किसी को भी
ऐसी दीवानगी हो जाए।
शब्दों के घेरे में घिड़े
न जागे और न सो ही पाए।।

समझ लेना की दुनिया में
एक और शायर ज़नाब आए।
कुछ उसकी सुनी जाए
कुछ अपनी कही जाये।

- अमिताभ रंजन झा

ज़ुल्म सहने की हमको आदत है


ज़ुल्म सहने की हमको
हो चुकी बुरी आदत।
दिल रोता रहता है
हम हँसते जाते हैं।।
डर डर के जीना भी
बन जाती है ताक़त।
दिल आंशु बहाता है
हम मुस्कुराते हैं।।

लाभ हानि के गणित में
रही अपनी बुरी हालत।
सब हमसे नफा उठाते हैं
हम घाटा सहते जाते हैं।।
हर शख्स में बसा मालिक
ये सोच करे सबकी इबादत।
वो मजाक उड़ाते हैं
और हम टालते जाते हैं।।

खुदा का खौफ नहीं हमको
शख्त है उनसे मोहब्बत।
बस खुदी से घबराते हैं
और बेखुदी से डरते हैं।।
रास आती नहीं हमको
एक पल भी कभी बरकत।
बेगानों से नहीं हम अपनों के
बिछुड़ जाने से डरते हैं।।

इंसानों से नहीं डरते उनके
अंदर के हैवानियत से डरते हैं।
रंग बदलते गिरगिट से नहीं डरते
पर बदलते इंसानों से डरते हैं।।
नापाक हस्तियों के
हिफाजत में लगे हैं लोग।
हम देश के लोगो की हादसों में
शहादत से डरते हैं।।

कोई लुट रहा है देश
दोनों ही हाथ से।
हम अपने हाथ के लहसन
के कालिख से डरते हैं।।
हम अच्छों से नहीं बुरो की
वकालत से डरते हैं।
चोरो से नहीं हम सच्चों
की गैरत से डरते हैं।।

झांक के देखता हूँ
उठी किसकी है मय्यत।
हम चंद लोगो की
सूरत से डरते हैं।।
तोड़ डाला है
घर हर आइना।
अपने अक्स में छुपे
बदसूरत से डरते हैं।।

- अमिताभ रंजन झा

जमाना कहे बुद्धू संपोला माँ कहे भोला अलबेला



ज़माने का सौतेलापन
क्यों है हम जैसो से?
कोई बुद्धू समझता है
कोई कहता हमें संपोला ।।
पीठ पीछे बेदर्दी से
भोंके विष भरा खंजर।
सामने हो जब हमारे
ओढ़े अपनेपन का वो चोला।।

आखिर हम भी इंसा हैं
बिलकुल उनके ही जैसे।
हमारे भी तो अरमां हैं
और सीने में है एक शोला।।
क्या हुआ जो है हम सच्चे,
हमको छल नहीं आती?
नर्वस हो जाते हैं जब कभी,
तुतलाते भी हैं थोला।।

बहुत आसानी से सबका
हम विश्वास करते हैं।
फायदे के लिए हम जैसो का
कभी मन नहीं डोला।।
बेवफाई बेईमानी का अब तक
हमसे न कोई नाता।
ये जहर लहू में अपने
हमने अब तक न घोला।।

जलते घांव बाहर हमारे
जिस्म पर नहीं दीखते।
अन्दर झांके जब कोई
पाए बस दर्द और फफोला।।
मोहब्बत अपनी आदत
तिजारत उनकी है फितरत।
हम प्यार से मरते रहे
उन्होंने स्वार्थ से हमें तोला।।

दुनिया है बड़ी सायानी
बेशक समझती है।
हमें झुकाने के खातिर न चाहिए
बम तोप का गोला।।
भावुक, दयालु हम लजाते हैं,
हिचकिचाते हैं न कह न पाते हैं।
कोई भी जीत ले हमको
बस दे के प्यार भरा एक झोला।

हमारे सीधेपन को वो समझे
क्यों कायरता या कमजोरी?
खाक में मिल जाये कितने
जो हमने मुंह जरा खोला।।
दबा के आँशु आँखों में
रिमझिम हम बरसते हैं।
जो फट जायेंगे एक दिन
हम बरसेंगे बन के ओला।

एक माँ ही है जो मेरे
तन मन में बसती है।
वो ही है जिसने
सदा कहा मुझको भोला।।
दुनिया की बातें
जब सुन के रोता मैं।
गले लगा के कहती
जहाँ में मैं सबसे अलबेला।।

-अमिताभ रंजन झा

पासवर्ड - कविता

दुनिया कितनी बदल गयी है!

सिखाया था कभी
दुनिया को नालंदा ने।
ज़माने को चलाने के नुस्खे
अब हार्वर्ड में मिलते हैं।।

खिलाया था कभी माँ ने
आम और मीठी खीर।
माशूका के हाथों से अब
चेरी-कस्टर्ड मिलते हैं।।

कैंटीनों में कभी होते थे
तहजीब के हर शब्द।
अब तो ज्यादातर
फक और बास्टर्ड मिलते हैं।।

कुरता, दुपट्टा का जमाना
अब नहीं "रंजन"।
हर तरफ आधुनिक खयालो के
फॉरवर्ड ही मिलते हैं।।

पर एक चीज़ नहीं बदली!

पहले प्यार की यादें
हर दिल में बसते हैं।
किताबो में कभी मिलते थे
अब पासवर्ड में मिलते हैं।।

****************

चलन नहीं बाजारों में
अब शराफत का।
मुंह मांगे दामों में अब
बदचलन ही बिकते हैं।।

-अमिताभ रंजन झा

Friday, March 29, 2013

पत्ताविहीन वृक्ष


This year Germany has witnessed darkest winter in past fifty years and coldest march in past hundred years. When I walk across the road, thre trees on the both sides are waiting for leaves. I have strange feeling when I see these leafless trees. A Hindi poem dedicated to the saviour of our lives "Trees".




ठंडी हवा के झोंकों से डोलती
पत्ताविहीन वृक्ष की डालियाँ
न जाने क्या क्या कहतीं हैं?

ठण्ड ख़तम हो ऐसा लगता नहीं,
सूरज और धूप का कही पता नहीं,
ऐसा तो अक्सर होता नहीं।

प्रकृति का ये कैसा प्रहार है?
वृक्ष को पत्तों का इंतजार है।
धरा को हरयाली की दरकार है।

सर्दी से आँखें खुले ही नहीं
रोने को आंशु भी नहीं क्योंकि
कभी हवा में नमी ही नहीं।

कही बूंद आंशु के है भी तो
बर्फ सी जमी रही क्योंकि
ठण्ड में कोई कमी नहीं ।

न पत्ते न फल फिर भी जी लेती हैं
दर्द इतना, सीने में पी लेती हैं,
हवा चले तो झूम ही लेती हैं।

- अमिताभ रंजन झा



लिपट जाने से नहीं कपड़ो पर सिलवट आ जाने से डरते हैं।।

मंजूर है मुझे उनकी
घने जुल्फों की हाजत।
कहने से नहीं हम उनके
चुप रह जाने से डरते हैं।।
दिलफेंक है थोड़े
दिल की आती न हिफाजत।
सामना से नहीं हम चाँद के
छुप जाने से डरते हैं।।

उनके सामने आते ही
दिल करता है धक् धक्।
शिद्दत से नहीं हम उनके
शोहबत से डरते हैं।।
सिल जाते हैं लब हमारे
जाती चेहरे की है रंगत।
चाहत से नहीं हम उनके
संगत से डरते हैं।।

फितरत से नहीं उनके
हम कुदरत से डरते हैं।
जिल्लत से नहीं उनके
उल्फत से डरते हैं।।
नफरत से से नहीं उनके
मोहब्बत से डरते हैं।
हिकारत से नहीं उनके
शोहरत से डरते हैं।।

शिकायत से नहीं उनके
मुरौवत से डरते हैं।
क़यामत से नहीं उनके
इनायत से डरते हैं।।
रियायत से नहीं उनके
पर शराफत से डरते हैं।
बुरे हालात से नहीं हम
बुरी हालत से डरते हैं।।

शराबो के प्यालो से नहीं हम
होठों के शरबत से डरते हैं।
लिपट जाने से नहीं कपड़ो पर
सिलवट आ जाने से डरते हैं।।
बंद आँखों से नहीं उनके
अपनी संगीं नियत से डरते हैं।
उनके मासूमियत से नहीं हम
अपने रंगीं तबियत से डरते हैं।।

मुझको यकीं हैं तपा सोना
उनकी रूह ऐ पाकियत।
उनके नसीब से न हम
अपनी किस्मत से डरते हैं।।
जज्बात से नहीं
अपने आप से डरते हैं।
आज की नहीं ये बात
बड़ी मुद्दत से डरते हैं।।

सहमा सा हूँ मैं रब रूठ न जाये
दिल टूट न जाए हम टूट न जाएँ।
ज़माने को रुला दे
ऐसी है रुबैयत।।
अल्फाजों से हम
अपने ला दे एक सैलाब।
अपने इस हुनर से
काबिलियत से डरते हैं।।

प्यार में फुर्सत
पा जाने से नहीं डरते।
अपनी जिगर के
गफ़लत से डरते हैं।।
नसीम ऐ सुबोह में हम
जागने से नहीं डरते।
लेकिन जुदाई से
शब् ऐ फ़ुर्क़त से डरते हैं।।

ठान ले कर देते हैं ऐ दोस्त
साहस के इसी पर्वत से डरते हैं।
किसी के बाप से नहीं डरते
बस अपनी हिम्मत से डरते हैं।
हौसले में कोई नहीं कमी
जरा हिलो-हुज्जत से डरते हैं।
सालों कमाई है खुद्दारी की जो दौलत
इसी नाजुक इज्जत को खोने से डरते हैं।।

एक मजेदार बात याद आ रही है।
हमारे एक निहायत करीबी दोस्त थे।
साहबजादे को एक सौ किलो की हसीना से प्यार हो गया।
पर उसके छः मुस्टंडे भाइयों से वो डरते थे।

तो यदि वो लिख रहे होते तो लिखते ...

बेशक दिलोजान से
चाहता हूँ उनको मैं ऐ दोस्त।

उठाने से नहीं उनको
खुद उठ जाने से डरता हूँ।।

भरी जवानी में कंधो पे
जाने से डरता हूँ।

उनके शहर में भी
अब जाने से डरता हूँ।।

फिर कुछ महीनो बाद वालिद के बुलावे पे गांव गए।
दरवाजे पर पांव रखते ही माशुका के सभी भाई से नैन मिल गए।
सिट्टी पिट्टी ग़ुम, उनके होश उड़ गए ।
एक भाई ने उन्हें संभाला, कोने में ले गए,
चेहरे पर पानी डाला, वो जग गए ।

फिर पुछा जिस दिन उन्होंने बहन से मिलते देखा था,
क्यों वो भागे थे और फरार कहा थे?

बात बात में, बात खुल गयी, बेचारे वो रिश्ते को राजी थे।

फिर क्या था?
दोनों का निकाह हो गया धूम धाम से।

अब इनके छह बेटे हैं
और एक बेटी।

- अमिताभ रंजन झा


Monday, March 25, 2013

Darkest Winter - Coldest Easter

Some how we counted the days and survived
the darkest Winter in fifty years!

And when we thought winter is over,
came coldest March in 100 years!

O my lord we have no more patience,
show some mercy and wipe our tears!

Next week is Easter and still chilling weather
God give us sunshine and warm atmosphere!



Most difficult days in Germany! Freezing, trembling, chilling!

-Amitabh Ranjan Jha




Sunday, March 24, 2013

Vier - Null

फियर नूल
Today India white-washed Australia in Cricket and I SHOUT Vier - Null (फियर - नूल).

(In German Vier is Four and Null is 0! V is said as F.)

Some memory:
In 2010 Football (Soccer) world cup Germany had beaten stong competitor Argentina 4 - 0 to reach the semi-final. I witnessed the grand celebration in Esslingen. I was walking on a small street on HirshclandStr near Hirsch Apotheke in Oberesslingen. I saw a small kid (three or fours years) just telling me vier null! I could see the passion and spirit in his eyes which was not new. Once I had same spirit for Cricket!

Esslingen Soccer Celebration Videos








There is Ram (God) in Harami


Hinduism says there is Ram (The incarnation of God) in every living. In hindi or urdu Harami is the word for Bastard. This word too have Ram in it. One should not hate such kids, instead help!

Saturday, March 16, 2013

पटना न्यू मार्केट - फ़्रंकफ़र्ट मेसे


पिछले हफ्ते जर्मनी के फ़्रंकफ़र्ट (माईन)में एक विज्ञान मेल में गया। रंग और रौशनी से नहाया हुआ। बेहद खुबसूरत बड़े छोटे स्टाल। नए प्रोडक्ट्स जिसे देखकर मुंह से निकले वाँव, अद्भुत! लोगो की भीड़। पांव रखने की जगह नहीं। एक स्टाल पे बहुत भीड़ थी। मैं भी पीछे खड़ा हो गया। प्रोजेक्टर पर एक शख्स नए प्रोडक्ट्स दिखा रहा था। वही भीड़ में एक आदमी पर नजर टिकी। ब्लैक सूट, हाथ में आई पैड। जैसे जैसे प्रोजेक्टर पर इमेज आते वो फोटो लेते जाता। स्क्रीन दर स्क्रीन। एक पल नजरे मिली फिर वो दुसरे स्टाल की तरफ बढ़ गया। आँखों ने अलग तरह का चोर देखा और चोरी भी। पुरानी बात याद आ गयी।


बात उन दिनों की है जब मैं हाई स्कूल में था। पटना के न्यू मार्केट में लगभग रोज का आना जाना था हर छोटे बड़े सामान के लिए। एक दिन की बात है, मैं मार्किट के पतली गली में घूम रहा था। ये वो जगह है जिसके के एक छोड़ पर हनुमान मंदिर है और दुसरे पर सब्जी बाजार। आधी सड़क पर कब्ज़ा दोनों तरफ दुकानदारो का, चौकी डाल दी, भरे बोरे रख दिए, ऊपर प्लास्टिक डाल दिया। और छोटे छोटे ठेले वाले सड़क के बीच में ठेले लगा देते। मार्केट में पांव रखने की जगह नहीं मिलती।

एक ठेले वाले से एक नेल कटर लिया। दूकानदार चौदह पंद्रह साल का लड़का ही था। उसको दस का नोट दिया। उसके पास खुदरा नहीं था। तभी एक और आदमी ठेले पर आया। लम्बा , दुबला पतला, सांवला। मटमैला सा धोती कुरता पहने। वो भी सामान देखने लगा। लड़के ने जो दाम बताया वो सुन कर जाने लगा। लड़का मुझसे बोला खुदरा ले के आते हैं। इधर लड़का गया और उधर वो आदमी वापस आया और झट से कुछ सामान ठेले से उठाया, कुर्ते के जेब में डाला. एक पल नजरे मिली और वो तेज कदम से भीड़ में गायब हो गया। ऐसा मैंने कभी देखा नहीं था। आँख के सामने चोरी दखी थी और चोर को भी। इस से पहले चोर के बारे में सुना था, अखबार में पढ़ा था। और चोर शब्द सुन कर सिहरन होती थी। पर उस समय जो देखा, स्तब्ध रह गया। चोर हमारी तरह इंसान निकला। एक पल के लिया सोचा हल्ला करूँ, चोर चोर। पर तरस आया, एक दो रूपये के सामान की बात थी।



-अमिताभ रंजन झा

Saturday, March 9, 2013

बौवा, लाल, बड़का, छोटका, नूनू, पढ़ुआ

गांव में कभी नाम लगाया जाता था। दो दोस्त एक दुसरे के लिए एक ही नाम का प्रयोग करते थे। स्नेह, प्रेमकुमर, गुलाबजल, डिअर।

कि स्नेह - त - हाँ स्नेह, कि प्रेमकुमार - त - हाँ प्रेमकुमार, कि गुलाबजल - त - हाँ गुलाबजल, कि डिअर - त - हाँ डिअर।

घर घर में नामकरण का भी रिवाज होता था। कितने सारे पुकारू नाम। बूरहा, बौवा, लाल, बड़का, छोटका, छोटू, नूनू, पढ़ुआ। बाबा, दादा, नाना, कक्का, मामा, पीसा, मौसा, भाईजी सबके लिए।

बौवा नाम तो हर घर में हर जनरेशन में होता। बौवा भाईजी, कक्का, मामा। बगल के बूढ़ा बाबा दरवाजे पर पुकार लगाते "बौवा छी यौ"? एक साथ आवाज आती हाँ भाईजी, हाँ कक्का, हाँ बाबा।

जो बूढ़े होते वो बूरहा भय्या, कक्का, पीसा, मामा, मौसा।

जो बड़े वो बड़का। छोटे छोटका, छोटे, छोटू, नुनू। जो मंझले वो लाल। जो ज्यादा पढ़े लिखे विद्वान वो पढ़ुआ।

शिक्षा या व्यवसाय के हिसाब से भी नाम। मुखिया, मास्टर, मनेजर, डॉक्टर, इंजिनियर, वकील, ओभरसियर।

स्त्रीलिंग भी होता। बडकी दाय, दादी, नानी, काकी, मौसी, मामी, दीदी। डॉक्टर काकी, वकील मामी।

नामकरण के अनेक कारण होते। संजुक्त परिवार होता था, बड़ा सा। एक घर में दस कक्का। एक कक्का कभी बोले, बाबूजी के कहियौन कक्का बजा रहल छैथ। बाबूजी पूछे "कून कक्का"? इंजिनियर कक्का!
अपने से बड़े का नाम लेना कुसंस्कार माना जाता, ये दूसरा कारण। और जब ये कोई पुकारू नाम लेकर पुकारता तो समझ जाते, कोई घर का है। बहार वाले फॉर्मल नाम बुलाते। ये अलग फायदा।

घर आई नयी बहू का भी नया नाम रखा जाता। उमरावती, कुसुमावती, कलावती, पद्मावती, राधे बौवासीन, श्यामा बौवासीन। उद्देश्य शायद ये कि उनका ससुराल में आना नए जनम की शुरुवात। सो नया नाम। दूसरा कारण ये कि जो उनका नाम होता वो पहले से घर में किसी का होता।

घर में जो काम करनेवाली होती उनका नाम उनके गांव से नाम से जोड़ कर बनता। भज्परौल वाली, रामनगर वाली।

समय बदलना शुरू हुवा। दादी माँ, काकी माँ का प्रचलन शुरू हुआ। हम कक्का, मामा, दीदी, भाईजी को नाम से बुलाने लगे।

हम बड़े होते गए। शिक्षा और नौकरी के लिए घर से, रिश्तों से दूर होते गए। हमारे बच्चे उस अपनापन से दूर।

पता भी नहीं चला कि कब हम पिज़्ज़ा, बर्गर, कोका कोला, लेज़, पेस्ट्री पर पलने वाले नुक्लेअर फॅमिली बन गए।

अब सारे रिश्तेदार को नाम के साथ पुकारते हैं बच्चे।

नितीश कक्का का जन्मदिन है आज, फेसबुक पर विश कर दीजियेगा।

- अमिताभ रंजन झा