Monday, January 20, 2014

व्यंग - टोपी




२००८ में खादी की टोपी, धोती, कुरता, अँगोछा पहन कर कार्यालय जा रहा था। ऑटोरिक्शा का इंतज़ार कर रहा था। आते जाते लोग देख रहे थे। कुछ घूर रहे थे कुछ मुस्कुरा रहे थे। मैं भी बस मुस्कुरा रहा था, आत्मस्वाभिमान हो तो दूसरे की हंसी चुभती नहीं है। एक महिला तो बस हसी जा रही थी। ऑंखें मिल गयी तब भी हँसते हुए आगे बढ़ गयी। कुछ समय बाद वापस आयी और हँसते हुए माफ़ी भी मांगी। मैंने पहले भी बुरा नहीं माना था और तब भी बोला कोई बात नहीं।

कुछ साल बाद टोपी का चलन हो गया, अण्णा टोपी, आप टोपी, लाल टोपी, केसरिया टोपी।

कुछ लोगो को टोपी पहनने की आदत नहीं थी सार्वजानिक जीवन में। हमेशा आम जनता को ही टोपी पहनाने में लगे रहते थे। कुछ समय पहले आम जनता ने उन्हें टोपी पहना दी। तब से हर्ष की हसरतें उपहास बनकर रह गयी। जनता से पूछते हैं अच्छा शीला दिया तूने मेरे प्यार का। और वो लोग भी सरे आम टोपी पहनने लगे वो भी रंग बिरंगी। अब आदत नहीं है तो कभी कभी दुविधा कि स्तिथि हो जाती है। जैसे शयन कक्ष में कोई प्रिय धीरे से कहे टोपी पहन लो या कार्यालय के एकांत कक्ष में कोई अंतरंग मित्र कहे टोपी पहन लो। मीडिया को सन्देश देना है, नेताजी को कान में पी ए कहता नेताजी टोपी पहन लीजिये। नेताजी बड़बड़ाते यहाँ? ये कह कर कुर्ते के भीतर के पॉकेट में हाथ डालते, कि पी ए कहता हजुर अंदर वाली नहीं बाहर वाली टोपी। उल्टा पुल्टा हो जाता है सनी टोपी और खादी टोपी में। कब कौन सा पहनना है। गाल भी लाल रहता है गलत टोपी पहनने कि वजह से। विस्तार में क्या बताऊ, आप खुद कल्पना कीजिये इन नकलची बंदरो के दुविधा का।

ऊपर से जनता भी अब जाग चुकी है और टोपी पहनने को तैयार नहीं। दस वर्ष से जनता को टोपी पहनाने वाले राह्-मन दल और दस वर्ष से अपनी बारी का इंतज़ार करने वाले नर-वाणीदल दोनों को अपने भविष्य से भय लगने लगा है। और जब कोई भयभीत होता है तो गन्दगी ही निकलती है। आम जनता का आत्मविश्वास जरुरत से ज्यादा न हो जाए ये भी ख्याल रखने की जरुरत है।

Saturday, January 4, 2014

आगे बढ़ो आप अपनाओ आस्तीन के साँप भगाओ।।


साढ़े पांच फुट का एक शख्श, साधारण परिवार में पैदा हुआ, आई आई टी से पढ़ाई की, इनकम टैक्स कमिश्नर बना। चाहता तो आज भारत के हर बड़े शहर में ५ कमरे के मकान होता, भ्रष्टाचार की कमाई से। पैसे के जोर पे एम पी, एम एल ए, मंत्री सब बन सकता था। पर उसे ये मंजूर न था।

जहा सौ दो सौ रूपये के लिए, छोटी छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए, इंसान का ईमान डोल जाता है वहा शक्ति, धन, समृधि के जीवन को त्याग देना हरेक के बस की बात नहीं। ऐसा नमक का दरोगा ही कर सकता है, ऐसा महात्मा बुद्ध ही कर सकते हैं।

दैनिक भ्रष्टाचार का सीधा असर आम आदमी पर पड़ता है। एक सरकारी बाबू जब बिजनेसमैन से घूस मांगता है, बिजनेसमैन डर से या जोड़ तोड़ की लालच से बाबू को पैसे दे देता है। दिए पैसे को वो आम जनता से ही वसूलता है, कम तौल कर, दाम बढ़ा कर, मिलावट से, काला बाजारी से, तरह तरह के गोरख धंधे से।

अब तक के धूर्त राजनितिक पार्टिया कभी कुछ नहीं करेगी ये तय है, उनसे कुछ अपेक्षा करना बालू से तेल निकलना, बाँझ से बच्चे की आस लगाने जैसा है। पर आम आदमी पार्टी कर सकती है। उम्मीद पर दुनिया कायम है।

यदि हम लोग इस बात को समझ नहीं सकते, तो हम वैसी ही जिंदगी के लायक हैं जो अब तक की सरकार ने दिया है। आज जो घुटन की जिंदगी हम जी रहे हैं, हमारी नासमझी हमारे बच्चो को भी वही जिंदगी देगी। यदि हम ये नहीं समझते हैं तो हमें क्या हक़ है बच्चे पैदा करने का? क्या जरुरत हैं उन्हें लाड़-प्यार से पोस के बड़ा करने का? क्या हमारे बच्चे चूजे हैं जो एक दिन मोटे ताजे चिकन बन कर इन घूसखोरो, बेईमानो का खाना बनेंगे, तिल तिल कर, टुकड़ो टुकड़ो में हर दिन जब तक सांस चलेगी? नहीं कभी नहीं।

अपने पे जो बीती है वो बच्चों का न भाग्य बनाओ।
आगे बढ़ो आप अपनाओ आस्तीन के साँप भगाओ।।



अमिताभ रंजन झा