असहजता
वर्षों विदेश में रहने के बाद वापस लौटा।
पाया काफी कुछ बदल गया था।
बैंगलोर जैसे आधुनिक शहर में,
हर आई टी पार्क में
नमाज़ की जगह की व्यस्था थोड़ा अटपटा लगा।
अधिकांशतः मुस्लिम मर्द दाढ़ी बढ़ाये हुए, औरतें पर्दे में।
कुछ लोग पठानी पोशाक में।
दोपहर में हजूम नमाज के लिए बढ़ता हुआ, आफिस टाइम में।
कुछ ज़ाकिर नायक के फैन भी।
वो ज़ाकिर नायक जो यूट्यूब पर
हमारे आस्था की धज्जी उड़ाते दिखता रहता है।
अपने आस्था का सम्मान हो,
पर हमारे आस्था का न अपमान हो,
मैंने बस यही चाहा।
खैर, आफिस में अजीब लगता था।
काफी दिन तक असहज महसूस करता रहा।
जन्म से ब्राह्मण, धर्म से हिन्दू हूँ।
फिर भी प्रोफेशन और अध्यन में
धर्म को अलग रखा।
दोस्त बनाये, बिना धर्म पूछे।
हर धर्म के दोस्त हैं, आज भी।
सदा उनकी भावना का ख्याल रखता हूँ।
सलाम वालेकुम
वालेकुम अस्लाम
एल्हमदुल लिल्लाह
कहने में कभी असहजता नही हुई।
ये बचपन से देखा, बोला, सुना।
जो पहले नही देखा, न सुना, न अनुभव किया
वो देख असहज हो ही जाता हूं।
मांस के नाम पर हिंसा सुन भी असहजता होती है।
इंसान हूँ!
एक वक्त था,
जब इंज़माम उल हक को मैच से पहले
पूरी पाकिस्तान क्रिकेट टीम के साथ
मैदान में नमाज पढ़ता देख अजीब लगता था।
बोलता, अरे यार, मैच खेल, अच्छा खेल।
सजदा घर मे कर, मस्जिद में कर।
कभी सोचा नहीं था, ये सब इतनी करीब से देखना होगा।
अपने देश में, शहर में, आफिस में।
पर ये सच है।
आज के तनाव भरे जिंदगी में
सजदा, बल देती है।
मुझे भी तनाव होता है,
चंद मिनटों में,
बस आंख बंद कर
गहरी साँस लेते हुए
सजदा कर लेता हूँ।
नया बल मिल जाता है।
आफिस में, सजदे के लिए इतना प्रयत्न?
कार्यालय काल मे ये थोड़ा अटपटा लगता है।
बोलता नहीं हूँ, ये सोच कि लोग बुरा मान जाएंगे।
प्रोफेशनल जगह और कैरियर में
इस तरह की बाते पहले नही देखी थी।
अपने इस असहजता को कहा बताता?
मैं तो उप-राष्ट्रपति हूँ नही
न ही राजनीतिज्ञ।
चलो, ठीक है यार
सजदा ही है, गुनाह नहीं।
पर असहजता तो थी ही।
धीरे धीरे आदत हो गयी।
भारत बदल रहा है।
अब तो कोई मुस्लिम मित्र या कस्टमर आता है
तो मैं ही पूछ लेता हूँ, नमाज को जाएंगे क्या?
नमाजी मित्रों से मिलवा देता हूँ।
सब सुखी रहें, निरोग रहें,
मिल के रहें यही कामना करता हूँ
- अमिताभ
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