Sunday, October 6, 2019

सरफ़रोशी

सरफ़रोशी

फिर सिरफिरों में वही है सरगोशी
फिर सरफ़रोशों की है सरफ़रोशी
फिर गांधीके शहादत सी ख़ामोशी
फिर गाँधीवाद को  ठहरा रहे दोषी

गांधी गांधी नहीं वो तो एक धरम है
गांधी विरोधियों में भी ऐसी शरम है
कि बंद-कमरों में नफरत उगलने वाले
बाहिर गांधी के ही गले डाल रहे माले

गाँधी को मिटाने के हसरत वाले
सौ करोड़ हैं गाँधीवाद के रखवाले
गांधी के गुनाहगारों, देश शर्मिंदा है
गांधी हमारे दिल में सदैव जिंदा है

- अमिताभ रंजन 'प्रवासी'

Friday, October 4, 2019

मुक़म्मल मुक़र्रर

मुक़म्मल मुक़र्रर

मोहब्बत की तो बेइंतिहा मुक़म्मल
दिल टूटा तो कहा मुक़र्रर मुक़र्रर

दोस्ती की तो जी जान से मुक़म्मल
दुश्मनी की तो कहा मुक़र्रर मुक़र्रर

मेरे अल्फ़ाज़ हो मुक़म्मल मुक़म्मल
लिखा मिटाया लिखा मुक़र्रर मुक़र्रर

मुक़म्मल हर चीज़ हो यही आदत मेरी
मौत भी आई तो कहा मुक़र्रर मुक़र्रर

- अमिताभ रंजन झा 'प्रवासी'

Wednesday, October 2, 2019

राजनीति-कुंजी

राजनीति-कुंजी

राजनीति समझन में वक़्त न जाया कीजै
राजनीति-कुंजी ही बस आजमाया कीजै

विकास, रोजगार की बातें घुमा दांया-बांया कीजै
राष्ट्रवाद का घूँट पिला, गोरक्षा में लगाया कीजै

दिन में सात -आठ बार वस्त्र बदलया कीजै
टीवी, रेडियो, मोबाइल, होर्डिंग, अखबार में छाया कीजै

शहीदों कै बच्चों की शिक्षा में धन न लगाया कीजै
ओहि धन से शहीदों कै नाम भव्य आयोजन करवाया कीजै

निंदकों के कुटि को आंगन सहित जलाया कीजै
सीबीआई, आईटी, ईडी, ट्रोलआर्मी पीछे लगाया कीजै

पक्ष के भ्रष्टचारी बलात्कारी कै संत बताया कीजै
विरोधियों कै कर के नाश, मज़ाक उड़ाया कीजै

संविधान के बुझ कर, खेलते जाया कीजै
एक एक अनुच्छेद से लाभ कमाया कीजै

एक अस्थायी अनुच्छेद से अपनी जाति मिलाया कीजै
दूसरे अस्थायी अनुच्छेद कै झटके में मिटाया कीजै

स्थानीय नेता कै जेल हवा खिलाया कीजै
शांति आड़ मैं पूरे 'राज्य' करफ्यू लगाया कीजै

एक सम्पूर्ण देश कै आतंकी बताया कीजै
उग्रवाद के आरोपी कै एमपी बनाया कीजै

इतने से न रुकिए, आगे दूर तक जाया कीजै
'दक्षिण' लगा कै कर्फ्यू, हिंदी राष्ट्रभाषा बनाया कीजै

पांच डेग जग नाप कै नाम कमाया कीजै
'देश' लगा कै कर्फ्यू, अस्थायी आरक्षण हटाया कीजै

नीच कोई जो कहिहै, जाती कार्ड खेलाया कीजै
अपनी चुपड़ी बातन से सबके खूब नचाया कीजै

राजनीति-कुंजी की भाव महिमा कहत है तुच्छ प्रवासी
नित्य जो पाठ-अनुकरण करैं, जग बनिहैं ओकरी दासी

अमिताभ रंजन झा 'प्रवासी'

#pravasi #प्रवासी #प्रवासीसंग्रह #राजनीति #राजनीतिक_व्यंग

Tuesday, October 1, 2019

भूख

भूख

पत्थर दिल भी
देख मंजर पिघल गया

भूख थी जिसे
भूख ने ही निगल लिया

बेघर था जो
खुदा के घर निकल लिया

माटी का जो बना
मिट्टी में मिल गया

जीने को उसका जी
फिर मचल गया

वो उसी मिट्टी में
फूल बन के खिल गया

अमिताभ रंजन झा 'प्रवासी'