भूख
पत्थर दिल भी
देख मंजर पिघल गया
भूख थी जिसे
भूख ने ही निगल लिया
बेघर था जो
खुदा के घर निकल लिया
माटी का जो बना
मिट्टी में मिल गया
जीने को उसका जी
फिर मचल गया
वो उसी मिट्टी में
फूल बन के खिल गया
अमिताभ रंजन झा 'प्रवासी'
भूख
पत्थर दिल भी
देख मंजर पिघल गया
भूख थी जिसे
भूख ने ही निगल लिया
बेघर था जो
खुदा के घर निकल लिया
माटी का जो बना
मिट्टी में मिल गया
जीने को उसका जी
फिर मचल गया
वो उसी मिट्टी में
फूल बन के खिल गया
अमिताभ रंजन झा 'प्रवासी'
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