२००८ में खादी की टोपी, धोती, कुरता, अँगोछा पहन कर कार्यालय जा रहा था। ऑटोरिक्शा का इंतज़ार कर रहा था। आते जाते लोग देख रहे थे। कुछ घूर रहे थे कुछ मुस्कुरा रहे थे। मैं भी बस मुस्कुरा रहा था, आत्मस्वाभिमान हो तो दूसरे की हंसी चुभती नहीं है। एक महिला तो बस हसी जा रही थी। ऑंखें मिल गयी तब भी हँसते हुए आगे बढ़ गयी। कुछ समय बाद वापस आयी और हँसते हुए माफ़ी भी मांगी। मैंने पहले भी बुरा नहीं माना था और तब भी बोला कोई बात नहीं।
कुछ साल बाद टोपी का चलन हो गया, अण्णा टोपी, आप टोपी, लाल टोपी, केसरिया टोपी।
कुछ लोगो को टोपी पहनने की आदत नहीं थी सार्वजानिक जीवन में। हमेशा आम जनता को ही टोपी पहनाने में लगे रहते थे। कुछ समय पहले आम जनता ने उन्हें टोपी पहना दी। तब से हर्ष की हसरतें उपहास बनकर रह गयी। जनता से पूछते हैं अच्छा शीला दिया तूने मेरे प्यार का। और वो लोग भी सरे आम टोपी पहनने लगे वो भी रंग बिरंगी। अब आदत नहीं है तो कभी कभी दुविधा कि स्तिथि हो जाती है। जैसे शयन कक्ष में कोई प्रिय धीरे से कहे टोपी पहन लो या कार्यालय के एकांत कक्ष में कोई अंतरंग मित्र कहे टोपी पहन लो। मीडिया को सन्देश देना है, नेताजी को कान में पी ए कहता नेताजी टोपी पहन लीजिये। नेताजी बड़बड़ाते यहाँ? ये कह कर कुर्ते के भीतर के पॉकेट में हाथ डालते, कि पी ए कहता हजुर अंदर वाली नहीं बाहर वाली टोपी। उल्टा पुल्टा हो जाता है सनी टोपी और खादी टोपी में। कब कौन सा पहनना है। गाल भी लाल रहता है गलत टोपी पहनने कि वजह से। विस्तार में क्या बताऊ, आप खुद कल्पना कीजिये इन नकलची बंदरो के दुविधा का।
ऊपर से जनता भी अब जाग चुकी है और टोपी पहनने को तैयार नहीं। दस वर्ष से जनता को टोपी पहनाने वाले राह्-मन दल और दस वर्ष से अपनी बारी का इंतज़ार करने वाले नर-वाणीदल दोनों को अपने भविष्य से भय लगने लगा है। और जब कोई भयभीत होता है तो गन्दगी ही निकलती है। आम जनता का आत्मविश्वास जरुरत से ज्यादा न हो जाए ये भी ख्याल रखने की जरुरत है।