Sunday, April 26, 2015

सिकंदर

हम आजके युगके सिकंदर हैं
लिखते खुद अपना मुक़द्दर हैं
हर बाधा जो सामने आती है
टकरा मिटटी मिल जाती है

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नींद नहीं है भूख नहीं है
चैन नहीं है प्यास नहीं है
आँखों में सपने छाए हैं
जिनको पाने की आग लगी है

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शांत झील हम दीखते हैं
पर मन बेचैन समंदर है
पर्वतको चूर-चूर कर दें
बाहुबल इतना अंदर है

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समुद्र तेरे सारे जल को
अपने अंजुल से पी लेंगे
सारे लहर सुनामी तेरे
अपने जुल्फों में सी लेंगे

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मत हंस हम पर तू ऐ सागर
नदिया बन कर हम बह लेंगे
तुझमें नहीं अब गिरना हमें
अब तुझको ही हम लीलेंगे

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सीने को तेरे चीड़ के हम
मन मर्जी से रास्ता लेंगे
तेरे नून को हम पसीने से
मीठे अमृत में बदलेंगे

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अनंत अथाह गहराई तेरी
अंतर्मन में हर लेंगे
तूफां को तेरे खैंच के हम
साँसों में अपने भर लेंगे

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गुस्ताख़ हिमालय शीश झुका
वार्ना चरणों से रौंदेंगे
तेरी बर्फ की चादर छीन के हम
भारत माता को दे देंगे

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सजग रह और दे पहरा
वरना तुझको बतला देंगे
टुकड़े टुकड़े कर के हम
तेरा नामों निशां मिटा देंगे

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