जमाना सचमुच बदल गया है।
किसी को याद है बेडिंग और बेडिंग कसने की? चलिए चलते हैं कुछ दशक पहले।
अब हम सफ़र के वक़्त बेडिंग ले के नहीं चलतेहैं। पिछली बार आप कब चले थे बेडिंग ले के?
मैं अंतिम बार लाया था 1998 में जब पटना से बैंगलोर आ रहा था, पहली बार यूपी बिहार से बाहर निकला था वो भी 3000 किलोमीटर दूर। एक हफ्ते में घर याद आने लगा था। याद है, एक दिन बाबूजी से फ़ोन पर बात करते करते फ़ोन बूथ में ही रो पड़ा था। एक ही रट, नहीं रहना है यहाँ, मुझे वापस आना है। बाबूजी की आवाज भी भर्रा गयी थी, पर समझाते रहे बेटा पटना में कुछ खास फ्यूचर नहीं होगा तुम्हारा। पंद्रह साल हो गए, साबित हो गया, बाबूजी सही थे। बैंगलोर ने बहुत कुछ दिया है। एक कविता से आभार प्रकट करने की कोशिश की - "सपनो का शहर बैंगलोर "।
खैर बेडिंग पर वापिस आते हैं।
याद है, उन दिनों जहा भी जाना होता, बेडिंग ले जाना तय था।
आज कल के पीढ़ी को शायद पता न हो सो थोड़ी विवरण की कोशिश करता हूँ।
बेडिंग बोरिया बिस्तर ढोने का सामान। कही जाये तो सोने की परेशानी नहीं। बेडिंग मोटे कपड़े का होता था। छे सात फुट लम्बा और तीन चार फुट चौड़ा। गहरे कलर का। विपरीत छोरों पर डेढ़ दो फुट का खोल होता। इसमें तोशक के लम्बाई के विपरीत छोड़ घुसाए जाते। फिर दो बेल्ट होते सात आठ फुट लम्बे, बंधने के लिए। और एक कपड़े का ही हैंडल होता, पकड़ के उठाने के लिए।
यात्रा से पहले बेडिंग खोजा जाता। फिर अखबार जमीन पर बीछा कर उसको ऊपर रखा जाता। सबसे नीचे सतरंजी। फिर तोशक। ठीक से मोड़ के। तोशक बेडिंग से चौड़ा होता था। तो उसको हुनर से मोड़ना होता था। जाड़ा हो तो रजाई। फिर बिछाने का चादर, ओढ़ने का सिल्केन चादर। अब बारी तकियों की। उन्हें बेडिंग के लम्बाई के दोनों विपरीत छोरो पर के खोल में घुसाया जाता। फिर अखबार में लपेट कर हवाई चप्पल। पूरा ठस्सम ठस्स।
अब उसको बांधना।
तरीके से दोनों विपरीत छोरों को मोड़ा जाता। फिर एक छोड़ अन्दर और दूसरा उसके ऊपर। फिर बेडिंग बेल्ट कसना। एडजस्ट करना। उसके ऊपर बैठ के, कोहनी से, घुटना से किसी तरह दबाना की साइज़ कम जाये। फिर बेल्ट को इस तरह फसाना की यात्रा में बेल्ट पकड़ के उठाने वक़्त खुल न जाये।
बेडिंग कसना कला है कला। सबके बस की बात नहीं। बल भी चाहिए और बुद्धि भी।
छोटा था तो बगल के चाचा लोग मदद करते। बड़ा हुआ तो भय्या लोगो को बुलाता। जाता बुलाने। जा रहे हैं बाहर। बेडिंग कसना है। वो तुरत राजी। बल प्रदर्शन का मौका कौन छोड़ता है। और अच्छा पडोसी का फर्ज भी निभ जाता। वापस लौटने पर उनके लिए देहाती पेंडा, लड्डू, खाजा, अमरुद कुछ भी सौगात ले आते। अगली बार भी तो बेडिंग बंधवाना होता था।
फिर हम खुद बड़े हो गए। बेडिंग कसने के कला में धुरंधर। अब तो वो कला गया, कब के भूले। पर शायद बेडिंग कसना भी तैराकी की तरह है। आप कभी नहीं भूलते। लगता है भूल गए, पर भूलते नहीं।। वो कला अब लुप्त्प्रै है। शायद।
हमारे बच्चे कभी ये अनुभव कर सकेंगे?
घर का बना पेंडा, भैंस का दूध। खेत का गन्ना, हरा चना, कच्चा मूंग खेत में तोड़ छील कर खाना। आग में पकाया अल्हुआ, मकई ओरहा। और भी बहुत कुछ शुद्ध, प्राकृतिक और देहाती! शायद समय आएगा, हमारे बच्चे टूरिस्ट बनके अपने ही गांव जायेंगे और ये अनुभव प्राप्त करने की कोशिश करेंगे।
आइये बेडिंग को हार्दिक श्रधांजलि मिल के देते हैं! दो मिनट का मौन आँख बंद कर के।
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