Saturday, January 15, 2011
अंगना के मोर
A poem for Aishwarya and Aakash!
सूनू पाकल परोर
किया नैन में अइछ नोर,
चिचियाई छी जोर शोर
कुनो मोन में अइछ चोर?
कनी हंसू बाजू
हमर गड्डी कड़ोड़,
कनी झूमू नाचू
हमर अंगना के मोर|
सांझे सा रुसल छी
होई छई आब भोर,
कान पकरै छी होम
लगय छी अहांके गोर|
कनी करेजा स सटू
हमर बउवा बेजोड़,
कनी कोरा में आउ
हमर अइखक इजोर|
कनी हंसू बाजू
हमर गड्डी कड़ोड़,
कनी झूमू नाचू
हमर अंगना के मोर|
-अमिताभ रंजन झा
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Saturday, January 8, 2011
कहानी गृह-कर्ज की
किसी ने सच कहा है: दुःख बांटने से घटता है, सुख बांटने से बढ़ता है. मैंने पिछले पोस्ट में अपने कर्ज तले दबे मध्यवर्ग के जीवन के दर्द को चित्रित करने का प्रयत्न किया था, उस लेख के बाद मन काफी हल्का हुआ. मैंने वादा किया था कि जीवन से जो सिखा है, आपके साथ बाटूंगा. सो हाजिर है "कहानी गृह-कर्ज की" या "दास्तान-ए-होमलोन".
वर्ष २००५ में एक फ्लैट ख़रीदा, बैंगलोर में. उस समय राष्ट्रीयकृत बैंको से गृह-कर्ज लेना टेढ़ी खीर थी, मैंने कुछ शाखाओं में संपर्क किया किन्तु कोई फायदा न हुआ. निजी बैंक झटपट कर्ज दे देते थे वो भी बहुत ही सहूलियत से. सो मैंने निजी बैंकों से संपर्क किया और आखिरकार एच. एस. बी. सी. बैंक से लोन एप्रूव हो गया, ७.२५ % फ्लोटिंग ब्याज दर पर, २० साल के लिए. कुछ दिनों में सब फ़ाइनल हो गया, और मुझे घर मिल गया. फिर दो महीने बाद एक लैटर मिला बैंक से कि ब्याज दर बढ़ा कर ७.७५% कर दिया गया है और मासिक किस्त की राशी बढ़ा दी गयी है. फिर तो ये सिलसिला हो गया और वर्ष २००८ के करीब में ब्याज दर बढ़ कर १३.७५% हो चुका था, मासिक किश्त लगभग दुनी हो चुकी था और समय सीमा २५ साल की हो गयी थी. बीते लगभग तीन सालों में, लिए गए कर्ज के एक तिहाई से ज्यादा कि रकम दे चुका था किन्तु मूल धन वैसे का वैसे ही था. सोचता रहता था कि ये क्या हो रहा है, ऐसा चलेगा तो मैं लोन कभी नहीं चुका पाउँगा. मुंशी प्रेमचंद जैसे महान कथाकारों कि कहानियों में सूदखोर महाजन के जाल में फंसे किसान हों या सत्यजीत रे जैसे महानुभावो के सिनेमा के किरदार, सब अपने लगने लगे थे, सबके दर्द को महसूस कर सकता था. सोचता रहता था कि सरकार क्या कर रही है? कैसे उन्होंने निजी बैंको को बेलगाम छोड़ दिया हमारा शोषण करने कि लिए? हालाँकि कर, सरचार्ज, इंधन, महंगाई इत्यादी बढ़ाने में सरकार कोई कोताही नहीं बरत रही थी और न आज ही बरत रही है. और हम सरकार और लेनदार के दो पाटों में पिस रहे थे, पिस रहे है.
वर्ष २००८ ही वो साल था जब मैं "रिच डैड पुअर डैड" पढ़ कर जागरूक हो चुका था. दुनिया में मंदी कि आंधी छायी थी. सरकार भी नींद से जागी और सब बैंको को ब्याज दर घटाने का निर्देश दे रही थी. सो मैंने एक दिन फ़ोन घुमाया एच. एस. बी. सी. कॉल सेंटर, बोला ब्याज दर कम करो नहीं तो किश्त देना बंद कर देंगे. असर हुआ, ब्याज दर १३.२५% हो गया. उसके पश्चात भी "आर बी आई" ने कई दफे "सी आर आर" में कटौती की पर बैंक ने ब्याज दर नहीं घटाया. मन में आक्रोश बढ़ता जा रहा था. उस समय राष्ट्रीयकृत बैंक भी गृह-कर्ज के रणक्षेत्र में उतर चुके थे. "एस बी आई" उनमे अग्रणी था सो मैंने एक शाखा में संपर्क किया, बोले कर्ज का स्थानांतरण संभव है वो भी करीब १०% ब्याज दर पर, १५ साल के लिए. मैंने एच. एस. बी. सी. में फिर संपर्क किया, वो बोले सब्र करने को, कुछ दिनों में ब्याज दर कम हो जायेगा, सरकार से बात हो रही है. मैं अड़ गया, अभी कम करो या मुझे माफ़ करो. शायद वो भांप चुके थे कि मेरा इस से ज्यादा दोहन नहीं कर सकते, मान गए, बोले २% पेनाल्टी लगेगा, सर्विश टैक्स अतिरिक्त. तीन साल में मूलधन का एक तिहाई से ज्यादा देने के बाद भी, मुझे उन्हें मूल धन से ज्यादा ही देना पड़ा. अवश्य ही उन पैसे से उन्होंने नया शिकार किया होगा. खैर अंततः मैंने लोन एस बी आई में ट्रांसफर करवा लिया. संतुष्ट हूँ उनकी पारदर्शिता से, ब्याज दर में भी कोई भारी बढ़ोत्तरी नहीं हुयी है न ही मासिक किश्त में. हालाँकि ग्राहक सेवा में काफी सुधार की गुंजाईश है. जब भी अतिरिक्त पैसे होते हैं, शौपिंग करने के बजाय झट से नेट बैंकिंग के द्वारा होम लोन खाते में ट्रान्सफर कर देता हूँ, एक हजार, दो हजार या कुछ भी. पिछले दो साल में मूलधन का लगभग एक चौथाई अदा कर चुका हूँ और विश्वाश है एक दिन ये कर्ज पूरा का पूरा चुका पाउँगा.
अपने घर का सपना संजोये मध्य वर्ग का दोहन बैंक तो करती ही है, रियल स्टेट एजेंट्स और राजनीतिज्ञों द्वारा अलग शोषण होता है. प्रोपर्टी व्यवसायी भ्रष्ट राजनीतियों से सांठ-गाँठ कर विकासशील शहर के आस पास की जमीन भोले-भाले ग्रामीणों से कौड़ी के भाव पर खरीदते है, और हमें आसमान छूटे भाव देने पड़ते है. ये अलग चिंता का विषय है, कभी विस्तार से लिखूंगा इस विषय पर.
गृह-कर्ज के अनुभव ने मुझे ये सिखाया है कि निजी बैंकों से कभी कोई कर्ज नहीं लेना चाहिए. आप कभी भी निजी और राष्ट्रीयकृत बैंक की तुलना करे, निजी बैंक का ब्याज दर हमेशा ज्यादा होता है, उनकी शर्ते पारदर्शी नहीं होती हैं. वो आपको फ्लोटिंग रेट पर कर्ज थोपने की कोशिश करते हैं और फिर एक बार आप उनके जाल में फँस गए, वो कर्ज का ब्याज दर बढ़ाते जाते हैं. आप उनके जाल में छटपटाते रह जाते है. राष्ट्रीयकृत बैंक थोड़ा समय लेते है पर काम आपके हित में होता है.
जो लोग निजी बैंक से कर्ज ले चुके हैं उनको कहना चाहूँगा, लोन ट्रान्सफर करवा ले राष्ट्रीयकृत बैंक में, फायदे में रहेंगे. तनिक भी देर न करे, आपका आलस्य आपको हर दिन महंगा पर रहा है. अपने मेहनत की कमाई ऐसे व्यर्थ न जाने दे. जागें, अपनी आँखें खोल ले और दुसरो को भी जागरूक करे. आप अपने अनुभव कमेंट्स सेक्सन में पोस्ट कर सकते हैं, कृपया अवश्य पोस्ट करें.
अगले पोस्ट में क्रेडिट कार्ड्स के अनुभव को लिखूंगा.
वर्ष २००५ में एक फ्लैट ख़रीदा, बैंगलोर में. उस समय राष्ट्रीयकृत बैंको से गृह-कर्ज लेना टेढ़ी खीर थी, मैंने कुछ शाखाओं में संपर्क किया किन्तु कोई फायदा न हुआ. निजी बैंक झटपट कर्ज दे देते थे वो भी बहुत ही सहूलियत से. सो मैंने निजी बैंकों से संपर्क किया और आखिरकार एच. एस. बी. सी. बैंक से लोन एप्रूव हो गया, ७.२५ % फ्लोटिंग ब्याज दर पर, २० साल के लिए. कुछ दिनों में सब फ़ाइनल हो गया, और मुझे घर मिल गया. फिर दो महीने बाद एक लैटर मिला बैंक से कि ब्याज दर बढ़ा कर ७.७५% कर दिया गया है और मासिक किस्त की राशी बढ़ा दी गयी है. फिर तो ये सिलसिला हो गया और वर्ष २००८ के करीब में ब्याज दर बढ़ कर १३.७५% हो चुका था, मासिक किश्त लगभग दुनी हो चुकी था और समय सीमा २५ साल की हो गयी थी. बीते लगभग तीन सालों में, लिए गए कर्ज के एक तिहाई से ज्यादा कि रकम दे चुका था किन्तु मूल धन वैसे का वैसे ही था. सोचता रहता था कि ये क्या हो रहा है, ऐसा चलेगा तो मैं लोन कभी नहीं चुका पाउँगा. मुंशी प्रेमचंद जैसे महान कथाकारों कि कहानियों में सूदखोर महाजन के जाल में फंसे किसान हों या सत्यजीत रे जैसे महानुभावो के सिनेमा के किरदार, सब अपने लगने लगे थे, सबके दर्द को महसूस कर सकता था. सोचता रहता था कि सरकार क्या कर रही है? कैसे उन्होंने निजी बैंको को बेलगाम छोड़ दिया हमारा शोषण करने कि लिए? हालाँकि कर, सरचार्ज, इंधन, महंगाई इत्यादी बढ़ाने में सरकार कोई कोताही नहीं बरत रही थी और न आज ही बरत रही है. और हम सरकार और लेनदार के दो पाटों में पिस रहे थे, पिस रहे है.
वर्ष २००८ ही वो साल था जब मैं "रिच डैड पुअर डैड" पढ़ कर जागरूक हो चुका था. दुनिया में मंदी कि आंधी छायी थी. सरकार भी नींद से जागी और सब बैंको को ब्याज दर घटाने का निर्देश दे रही थी. सो मैंने एक दिन फ़ोन घुमाया एच. एस. बी. सी. कॉल सेंटर, बोला ब्याज दर कम करो नहीं तो किश्त देना बंद कर देंगे. असर हुआ, ब्याज दर १३.२५% हो गया. उसके पश्चात भी "आर बी आई" ने कई दफे "सी आर आर" में कटौती की पर बैंक ने ब्याज दर नहीं घटाया. मन में आक्रोश बढ़ता जा रहा था. उस समय राष्ट्रीयकृत बैंक भी गृह-कर्ज के रणक्षेत्र में उतर चुके थे. "एस बी आई" उनमे अग्रणी था सो मैंने एक शाखा में संपर्क किया, बोले कर्ज का स्थानांतरण संभव है वो भी करीब १०% ब्याज दर पर, १५ साल के लिए. मैंने एच. एस. बी. सी. में फिर संपर्क किया, वो बोले सब्र करने को, कुछ दिनों में ब्याज दर कम हो जायेगा, सरकार से बात हो रही है. मैं अड़ गया, अभी कम करो या मुझे माफ़ करो. शायद वो भांप चुके थे कि मेरा इस से ज्यादा दोहन नहीं कर सकते, मान गए, बोले २% पेनाल्टी लगेगा, सर्विश टैक्स अतिरिक्त. तीन साल में मूलधन का एक तिहाई से ज्यादा देने के बाद भी, मुझे उन्हें मूल धन से ज्यादा ही देना पड़ा. अवश्य ही उन पैसे से उन्होंने नया शिकार किया होगा. खैर अंततः मैंने लोन एस बी आई में ट्रांसफर करवा लिया. संतुष्ट हूँ उनकी पारदर्शिता से, ब्याज दर में भी कोई भारी बढ़ोत्तरी नहीं हुयी है न ही मासिक किश्त में. हालाँकि ग्राहक सेवा में काफी सुधार की गुंजाईश है. जब भी अतिरिक्त पैसे होते हैं, शौपिंग करने के बजाय झट से नेट बैंकिंग के द्वारा होम लोन खाते में ट्रान्सफर कर देता हूँ, एक हजार, दो हजार या कुछ भी. पिछले दो साल में मूलधन का लगभग एक चौथाई अदा कर चुका हूँ और विश्वाश है एक दिन ये कर्ज पूरा का पूरा चुका पाउँगा.
अपने घर का सपना संजोये मध्य वर्ग का दोहन बैंक तो करती ही है, रियल स्टेट एजेंट्स और राजनीतिज्ञों द्वारा अलग शोषण होता है. प्रोपर्टी व्यवसायी भ्रष्ट राजनीतियों से सांठ-गाँठ कर विकासशील शहर के आस पास की जमीन भोले-भाले ग्रामीणों से कौड़ी के भाव पर खरीदते है, और हमें आसमान छूटे भाव देने पड़ते है. ये अलग चिंता का विषय है, कभी विस्तार से लिखूंगा इस विषय पर.
गृह-कर्ज के अनुभव ने मुझे ये सिखाया है कि निजी बैंकों से कभी कोई कर्ज नहीं लेना चाहिए. आप कभी भी निजी और राष्ट्रीयकृत बैंक की तुलना करे, निजी बैंक का ब्याज दर हमेशा ज्यादा होता है, उनकी शर्ते पारदर्शी नहीं होती हैं. वो आपको फ्लोटिंग रेट पर कर्ज थोपने की कोशिश करते हैं और फिर एक बार आप उनके जाल में फँस गए, वो कर्ज का ब्याज दर बढ़ाते जाते हैं. आप उनके जाल में छटपटाते रह जाते है. राष्ट्रीयकृत बैंक थोड़ा समय लेते है पर काम आपके हित में होता है.
जो लोग निजी बैंक से कर्ज ले चुके हैं उनको कहना चाहूँगा, लोन ट्रान्सफर करवा ले राष्ट्रीयकृत बैंक में, फायदे में रहेंगे. तनिक भी देर न करे, आपका आलस्य आपको हर दिन महंगा पर रहा है. अपने मेहनत की कमाई ऐसे व्यर्थ न जाने दे. जागें, अपनी आँखें खोल ले और दुसरो को भी जागरूक करे. आप अपने अनुभव कमेंट्स सेक्सन में पोस्ट कर सकते हैं, कृपया अवश्य पोस्ट करें.
अगले पोस्ट में क्रेडिट कार्ड्स के अनुभव को लिखूंगा.
Thursday, January 6, 2011
मध्यवर्ग आर्थिक समृधिकरण
परेशान रहता हूँ आज कल अपने आर्थिक स्तिथि से, मध्यवर्ग से जो हूँ. घर का लोन, निजी लोन, कार लोन, क्रेडिट काड्र्स, ओवरड्राफ्ट, जीवन रक्षा प्रीमियम, कार प्रीमियम, ये कर्ज वो कर्ज इत्यादि इत्यादि. इनका शिकार हम मिडल क्लास के लोग ही क्यों बनते हैं? तनख्वाह कब हवा हो जाती है पता ही नहीं चलता. "वेळ डन अब्बा" चलचित्र में बोमन ईरानी शाहेब से सहमत हूँ, बहुत सही कहा है "जिस दिन महीने का वेतन मिलता है हम गरीबी रेखा से ऊपर आ जाते हैं और अगले ही दिन नीचे चले जाते हैं". अब बाकी का जो दो चार टका बचता है वो घर के खर्च में निकल जाता है, फ्लैट का मेनटीनेन्स, कामवाली का पगार, बिजली, अख़बार, फ़ोन, मोबाइल, इन्टरनेट, केबल का बिल, ये बिल, वो बिल, हे भगवान. राशन के लिए क्रेडिट कार्ड्स के सिवा कोई दूसरा चारा नहीं बचता है. अच्छी नौकरी, अच्छी तनख्वाह, फिर भी ये आलम है. मेरी हालत पे पिताजी अक्सर चुटकी लेते है, दस हजार में हम पूरा परिवार चलाते थे आप इतना कमाते है फिर भी ये हाल है, आ जाईये पटना. अकसर सोचता हूँ, सोचता रहता हूँ, क्या हो रहा है ये, कब तक होता रहेगा ऐसा. शायद आप में से बहुतो को ये कहानी जानी पहचानी लगेगी, नहीं?
कुछ साल पहले एक किताब पढ़ी, "रिच डैड पुवर डैड". अच्छी किताब है, सोचा ये किताब दस साल पहले क्यों नहीं पढ़ी. जब मौका मिले जरुर पढ़िए. जरुरी नहीं है कि आप किताब की हर बात का अनुसरण करे पर ये आपका फिनान्सिअल आई क्यू (आर्थिक या वित्तिक बुद्धिमता) अवस्य बढ़ाएगा. हालाँकि ये किताब आपको खुद का बिजनेस करने को उत्साहित करती है, मेरा मानना है कि नौकरी में रहते हुए भी आप खुद को को समृध कर सकते हैं. आप सारांश यहाँ पढ़ सकते हैं: http://www.wikisummaries.org/Rich_Dad,_Poor_Dad
स्वीकार करना चाहूँगा कि दिमाग का अंग्रेजीकरण हो चुका है, हिंगलिश का आदि हो गया हूँ (कभी विस्तार में लिखूंगा, ये कैसे हुआ). हिंदी के शिक्षक पढेंगे तो माथा पीट लेंगे, नंबर देने लगे तो कम से कम -१०० तो देने ही होंगे. हाँ, इंची के हिसाब से नंबर देते होंगे तो हम पास अवस्य हो जायेंगे. जो लोग इंची कॉपी जाँच प्रणाली से उनके लिए एक लघु-परिचय: इंची प्रणाली परीक्षा की कॉपी जाँच करने की एक अनोखी प्रणाली है जिसमें लिखे लेख, उत्तर इत्यादि की उंचाई (इंच में) के हिसाब से अंक दिए जाते है. जब बहुत सारी कापियों का आंकलन कम समय में करनी हो तो ये प्रणाली बहुतो द्वारा अपनाई जाती है. उस प्रणाली का आदि हो गया हूँ, कुछ भी लिखू उसको लम्बा करने में लगा रहता हूँ कि कम से कम पास कर जाऊं. इस प्रणाली कि त्रुटी ये है कि मेधावी छात्र को भी औसत आंकलन से संतोष करना परता है. विद्यालय का नाम, विद्यार्थी का लास्ट नेम, कॉपी में कुछ कोड शब्द इत्यादि औसत आंकलन को बेहतर कर सकते हैं. कभी विस्तार में लिखूंगा.
हाँ तो मैं कह रहा था निजी आर्थिक समृधिकरण के बारे में, पहले न जाने कितने शलोक पढ़े, दोहे पढ़े, कहानिया सुनी, उपदेश सुना मितव्ययिता के बारे में, बात दिमाग में नहीं घुसी. जब विदेशी लेखक कि अंग्रेजी किताब पढ़ी, आँखें खुल गयीं. चलो सुबह का भूला शाम को घर आ जाये तो उसको भूला नहीं कहते. मन में सोच लिया है "एसेट क्वाडरंट मजबूत करना है, एसेट बढ़ाना है और लाएबिलिटी कम करना है". योजना बनाया हर खर्च से पहले खुद से पूछुंगा ''जरुरी है क्या, क्यों करना है".
अब हर खर्च से पहले सोचता हू, क्यों? पहले बैंक, लोँन, क्रेडिट कार्ड्स, इंश्योरंस के पत्र सीधे कचरे में डालता था. अब पढ़ने लगा हूँ. जब से ध्यान देना शुरू किया है काफी कुछ सीखने को मिला है. अगले पोस्ट में बताऊंगा टिप्स एंड ट्रिक्स, शायद आपके काम आ जाए!
कुछ साल पहले एक किताब पढ़ी, "रिच डैड पुवर डैड". अच्छी किताब है, सोचा ये किताब दस साल पहले क्यों नहीं पढ़ी. जब मौका मिले जरुर पढ़िए. जरुरी नहीं है कि आप किताब की हर बात का अनुसरण करे पर ये आपका फिनान्सिअल आई क्यू (आर्थिक या वित्तिक बुद्धिमता) अवस्य बढ़ाएगा. हालाँकि ये किताब आपको खुद का बिजनेस करने को उत्साहित करती है, मेरा मानना है कि नौकरी में रहते हुए भी आप खुद को को समृध कर सकते हैं. आप सारांश यहाँ पढ़ सकते हैं: http://www.wikisummaries.org/Rich_Dad,_Poor_Dad
स्वीकार करना चाहूँगा कि दिमाग का अंग्रेजीकरण हो चुका है, हिंगलिश का आदि हो गया हूँ (कभी विस्तार में लिखूंगा, ये कैसे हुआ). हिंदी के शिक्षक पढेंगे तो माथा पीट लेंगे, नंबर देने लगे तो कम से कम -१०० तो देने ही होंगे. हाँ, इंची के हिसाब से नंबर देते होंगे तो हम पास अवस्य हो जायेंगे. जो लोग इंची कॉपी जाँच प्रणाली से उनके लिए एक लघु-परिचय: इंची प्रणाली परीक्षा की कॉपी जाँच करने की एक अनोखी प्रणाली है जिसमें लिखे लेख, उत्तर इत्यादि की उंचाई (इंच में) के हिसाब से अंक दिए जाते है. जब बहुत सारी कापियों का आंकलन कम समय में करनी हो तो ये प्रणाली बहुतो द्वारा अपनाई जाती है. उस प्रणाली का आदि हो गया हूँ, कुछ भी लिखू उसको लम्बा करने में लगा रहता हूँ कि कम से कम पास कर जाऊं. इस प्रणाली कि त्रुटी ये है कि मेधावी छात्र को भी औसत आंकलन से संतोष करना परता है. विद्यालय का नाम, विद्यार्थी का लास्ट नेम, कॉपी में कुछ कोड शब्द इत्यादि औसत आंकलन को बेहतर कर सकते हैं. कभी विस्तार में लिखूंगा.
हाँ तो मैं कह रहा था निजी आर्थिक समृधिकरण के बारे में, पहले न जाने कितने शलोक पढ़े, दोहे पढ़े, कहानिया सुनी, उपदेश सुना मितव्ययिता के बारे में, बात दिमाग में नहीं घुसी. जब विदेशी लेखक कि अंग्रेजी किताब पढ़ी, आँखें खुल गयीं. चलो सुबह का भूला शाम को घर आ जाये तो उसको भूला नहीं कहते. मन में सोच लिया है "एसेट क्वाडरंट मजबूत करना है, एसेट बढ़ाना है और लाएबिलिटी कम करना है". योजना बनाया हर खर्च से पहले खुद से पूछुंगा ''जरुरी है क्या, क्यों करना है".
अब हर खर्च से पहले सोचता हू, क्यों? पहले बैंक, लोँन, क्रेडिट कार्ड्स, इंश्योरंस के पत्र सीधे कचरे में डालता था. अब पढ़ने लगा हूँ. जब से ध्यान देना शुरू किया है काफी कुछ सीखने को मिला है. अगले पोस्ट में बताऊंगा टिप्स एंड ट्रिक्स, शायद आपके काम आ जाए!
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मेरी कहानी
Wednesday, January 5, 2011
परिचय/Introduction
जर्मनी में बसा हूँ, हिंदी में लिखना शौक, सोर्स कोड लिखना पेशा!
मित्रों, मुझसे आप फेसबुक, ट्विटर, लिंकडीन, यॉरकोट, यूट्यूब इत्यादि पे जुड़ सकते हैं. आपका स्नेह, कमेन्ट, शेयर, +1 और लायक प्रोत्साहित करता रहा है और करता रहेगा।
The Canal Proposal
500Km Canal Proposal on Nepal border in Bihar to solve flood problem and bring Agricultural Industrial Revolution

A journey from Mithila to Germany
Introduction:
I am from a small village named Seema near Madhubani in Bihar. I was born in my mother's village called Gandhabari near Pandaul in Madhubani. I was born on a bullock cart while on the way to hospital. :) Yes, that is true! But I wonder if there is a drastic change in the healthcare facilities there even after decades gone. I was brought up in Patna. I am an IT Professional and an MBA. I worked in Bangalore and currently I am in Germany. I have been fortunate to travel to many places in world like Malaysia, Taiwan, Europe and extensively in USA. But I have dream to settle in Seema. But not in the Seema of today. Rather Seema and every village of tomorrow, where there will be non-stop electricity, fast internet, abundance of employment opportunities, quality hospital, school and roads. I dream that our children will have option to live in the heart of the motherland unlikely from us who are forced to migrate for education or jobs. Health, wealth and harmony for each and every individual! Sane or insane, stupid or smart, that is what I dream.
मैं बिहार के एक छोटे से खुबसूरत और हरे-भरे गांव से हूँ. मेरा जन्म मेरे ननिहाल में हुआ था. मुझे बताया गया कि हस्पताल जाते वक्त रास्ते में ही बैलगाड़ी में मेरा जन्म हो गया, गांव में हस्पताल नहीं था. बहुत लोग ये सुन कर हँसते हैं, पर ये सत्य है. हालाँकि हास्यास्पद बात ये है कि 3 दशक से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी वहा कुछ ज्यादा बदलाव नहीं आया है. आज 30 वर्षों के बाद भी क्या मेरे गांव में मूलभूत सुविधायों में परिवर्तन आया है? सोचने का विषय है. ये हालत लगभग हर गांव की है.
बाबा खेतिहर थे, इलाके में नाम था. शायद कृषक के कठोर जीवन से सबक लेकर, उन्होंने अपने बच्चों को उन्होंने खूब पढाया. पिताजी की नौकरी लगी और हम १९८० के आसपास समस्तीपुर आ गए. पर हर छोटे बड़े त्यौहार जैसे मकड़ संक्रांति, होली, चौठ चन्द्र, अनंत पूजा, दशहरा, कोजगरा, दीवाली, छठ, छुट्टिया, शादी, मुंडन, उपनयन में हम गांव जाते रहे. फिर पिताजी का तबादला पटना हो गया. जैसे जैसे गांव से दूरी बढ़ती हमारा गांव जाना धीरे धीरे कम होता गया.
पटना से मेट्रिक किया फिर आई आई टी और बी आई टी की तय्यारी में वर्षों तक लगा रहा किन्तु सफलता हाथ नहीं लगी. बहुत ठोकरे खाई. 2000 में एक किताब पढ़ी शिव खेरा की, "यू कैन विन". किताब का पहला पृष्ठ मन में बैठ गया "गुब्बारे का बाहर का रंग नहीं, उसके अंदर की बात उसको ऊपर ले जाती है". अच्छी किताब है, जब मौका मिले जरुर पढ़िए. मैनेजमेंट में स्नातकोत्तर डिप्लोमा ली, छोटी मोटी नौकरी की, फिर बंगलोर आ गया. नौकरी के लिए बैंगलोर की गलियों की खाक छानी और धीरे धीरे आगे बढ़ता गया और आज ठीक ठाक स्तिथि में हूँ एक आई टी प्रोफेसनल के रूप में.
नौकरी ने आधी दुनिया देखने का मौका दिया, अमेरिका, मलेसिया, ताइवान और यूरोप. मेनेजर बुला के पूछते ऑनसाईट जाओगे, कोई समस्या तो नहीं है? मैं हमेशा ये सोचता कि जब घर में नहीं हूं तो दुनिया के किसी भी कोने में हूँ क्या फर्क पड़ता है? चलो फिर. आज कल जर्मनी में हूँ और जब भी मौका मिलता है निकल पड़ता हू यूरोप कि सैर पर.
माँ इलाहाबाद में पली-बढी थीं, हिंदी में लिखने का शौक था और काफी अच्छा लिखती थीं. हिंदी की चलती फिरती शब्दकोष थीं वो, मेरी हिंदी गयी गुजरी है, हिंगलिश का आदि हो गया हूँ. अक्सर उन्हें लिखते देखता था, कहानी, कविताऐं. सो लिखने का शौक मुझे विरासत में मिला है. शायद पांचवे या छठे कक्षा में था और मैंने एक व्यंग लिखी थी, मेरी पहली कृति. माँ हँसते हँसते लोट-पोट हो गयी थीं, बोली अच्छा है, लिखते रहो. वो कहानी नहीं है मेरे पास, शायद भूल से सोनपापड़ी या कबाड़ी वाले को दे दिया होगा. हालाँकि आधा सीधा याद प्रसंग है.
India Against Corruption से जुड़ा हुआ था। फिर 2014/15 में बीजेपी के चुनाव प्रचार में OFBJP के साथ तन मन धन से काम किया था, बिहार ऐलेक्सन में 1 महीने छुट्टी लेकर बीजेपी का प्रचार किया था और पटना में नवसारी एम पी श्री C R पाटिल जो कि अमित शाह के करीबी हैं उनसे जुड़ा था। पर तब और अब में अंतर है। तब सबका साथ सबका विकास मुद्दा था। लगातार हो रही त्रुटियां, विकास से भटकाव को समर्थन कैसे करता? दिल टूट गया। IAC राजनीति में AAP बन के उतरी। शुरू में बहुत साथ दिया, पर वो आपस मे ही लड़ने लगे। तब भी दिल टूटा था। निस्वार्थ तन मन धन अर्पण करो और ये परिणाम?
भारत से जुड़ा हुआ हूँ और अब भी भारतीय नागरिक हूँ। जर्मनी कैरियर और भविष्य के लिए चला आया। यहाँ काम करने में, अनुसंधान, अविष्कार, संभावना में ज्यादा ऑप्शन हैं। भारत में अनुभवी IT professional के लिए संभावनाएं कम होती जाती हैं। माइंडसेट है कि, 2 साल अनुभव वाला वही काम कर सकता है तो 20 साल वालों को ज्यादा सैलरी दे क्यों रखे। यहां रिटायरमेंट उम्र 68 है, healthcare subsidized है, प्रदूषण निम्मनतम है, इंफ्रास्ट्रक्चर उत्तम है, लोग नियम पसंद हैं, समय की कद्र है। पर यहां अपना कल्चर, माँ, पिता, भाई, बहन, नाते, रिश्तेदार, दोस्त, लोग, अपना त्योहार खान पान से दूरी होती जाती हैं। यहाँ काम वाली, ड्राइवर, नौकर यहां की मिडिल क्लास अफोर्ड नहीं कर सकती। साल में 6 महीने ठंड अलग। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। पर यहां रहने से फाइनेंसियल स्तिथि बेहतर होती गयी। इसी कारण पटना में और गांव में स्कूल और कंप्यूटर ट्रेनिंग खोला था, 2 साल लोगों की सेवा करने की कोशिश की। बिहार उद्यमी संघ का मेंबर बना। कंपनी बनाया। अपना विज़न और मिशन CM के अध्यक्षता में 500 से 1000 लोगों के सामने पर प्रेजेंट किया। सरकारी ज़मीन के लिए चक्कर लगाता रहा। पर अंततः परिणाम शून्य। बिहार सरकार एवम प्रशासन ब्रोकर के हाथों में हैं। सारी जमा पूंजी तो गयी ही, करोड़ों का लोन हो गया। खैर, देश के लिए लगा रहूंगा।
किन्तु दुनिया में कही भी हूं, गांव-देस की याद हमेशा आती है. अपने गांव में बसना चाहता हूं. थोड़ा स्वार्थी और आराम तलब हो गया हूं। इसलिए आज के गांव में नहीं बल्कि उस गांव में बसना चाहता हूं जहा निरंतर बिजली हो, द्रुत इन्टरनेट सुविधा हो, प्रचुर नौकरिया हो, अच्छे अस्पताल हों, विद्यालय हों, सड़के हों, सभी स्वस्थ हों, समृद्ध हों. ऐसी कल्पना भारत के हर गांव के लिए है. और ऐसा मुश्किल नहीं है, क्योंकि मैं ये बाते जर्मनी में एक छोटे से समृद्ध गांव में बैठ कर लिख रहा हूं. और आशा करता हूं कि ये अपने जीवन में देख सकूँगा. और उन सपनों को साकार करने के लिए बिहार रीभाईभल फोरम (http://revive-bihar.blogspot.com) के माध्यम से प्रयत्नशील हूँ.
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Saturday, January 1, 2011
सूरत और सीरत
आँखें फाड़ शीशे को
देखते रहते हो,
कभी शरमाते
कभी घबराते
तो कभी मुस्कराते हो|
आँखें बंद कर कभी
अंदर भी निहारों||
सूरत सँवारने में
घंटे लगे रहते हो,
क्या क्या लगा के
न जाने सजते हो
सँवरते हो|
कभी सीरत को भी
तो तराशो निखारो||
- अमिताभ रंजन झा
देखते रहते हो,
कभी शरमाते
कभी घबराते
तो कभी मुस्कराते हो|
आँखें बंद कर कभी
अंदर भी निहारों||
सूरत सँवारने में
घंटे लगे रहते हो,
क्या क्या लगा के
न जाने सजते हो
सँवरते हो|
कभी सीरत को भी
तो तराशो निखारो||
- अमिताभ रंजन झा
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Friday, December 31, 2010
नववर्ष का स्वागत
बीता ये साल,
छोड़े सब मलाल,
नववर्ष के स्वागत
में आ झूमे गायें|
नंगे है तन,
भूखे है जन,
पर उम्मीद का दिया
कभी बुझने न पाए|
लाखो हो मुश्किलें,
मिल के हम चले,
सपनो का वतन
मेहनत से बनाये|
आ ले ये कसम,
जब तक दम में दम,
भारत का तिरंगा
झुकने न पाए|
हौसला रहे अटल,
हर प्रयास हो सफल,
नव वर्ष में सबको
हार्दिक शुभकामनाएं|
- अमिताभ रंजन झा
छोड़े सब मलाल,
नववर्ष के स्वागत
में आ झूमे गायें|
नंगे है तन,
भूखे है जन,
पर उम्मीद का दिया
कभी बुझने न पाए|
लाखो हो मुश्किलें,
मिल के हम चले,
सपनो का वतन
मेहनत से बनाये|
आ ले ये कसम,
जब तक दम में दम,
भारत का तिरंगा
झुकने न पाए|
हौसला रहे अटल,
हर प्रयास हो सफल,
नव वर्ष में सबको
हार्दिक शुभकामनाएं|
- अमिताभ रंजन झा
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Sunday, December 19, 2010
God bless Germany!
In the freezing cold,
inside the blanket of snow,
in the arms of nature
moves on Germany!
Sun rises late,
night comes early,
against all odds
never stops Germany!
In the season of summer,
morning arrives too early,
and moon rises too late
but never complains Germany!
The destruction in the world war
could not break courage.
Through hard work and integrity
raised again Germany!
Agony or joy in life
or comfort or challenges,
we must move on
teaches us Germany!
From a factory in America
to a small village in India,
in every corner of the world
you will find technology Germany!
Things happen on the press of button,
Life made easy by science and wisdom,
Abundant development and happiness,
God bless Germany!
People are honest and truthful,
there is no place for crime,
hard work is the identity,
Salute you Germany!
- Amitabh Jha
inside the blanket of snow,
in the arms of nature
moves on Germany!
Sun rises late,
night comes early,
against all odds
never stops Germany!
In the season of summer,
morning arrives too early,
and moon rises too late
but never complains Germany!
The destruction in the world war
could not break courage.
Through hard work and integrity
raised again Germany!
Agony or joy in life
or comfort or challenges,
we must move on
teaches us Germany!
From a factory in America
to a small village in India,
in every corner of the world
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God bless Germany!
People are honest and truthful,
there is no place for crime,
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Salute you Germany!
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सौ सौ नमन जर्मनी
हिमपात एवं भीषण शर्दी यूरोप के जीवन को कितना कठिन बना देती है, अंदाज नहीं था। छह महीने ठण्ड, बर्फ और अन्धकार में डूबे रहने के बाबजूद यहाँ के लोगो ने इतनी तरक्की की है। इनसे सीख मिलती है कि कठिनाइयों का समाधान करो और आगे बढ़ो। एक कविता इनको समर्पित।
करकराती सर्द में,
बर्फीली चादर तले,
प्रकृति की आगोश में,
चलती रहे जर्मनी!
सूरज देर से जगे,
रात जल्द आये तो क्या?
किसी भी हाल में कभी
रूकती नहीं जर्मनी!
गर्मी के मौसम में
जल्द आ टपके सवेरा,
चाँद लेट लतीफ़ तो क्या?
शिकायत करती नहीं जर्मनी!
युद्ध ने था लुटा कभी,
पर हौसला न टूटा कभी!
कड़ी मेहनत और लगन से
फिर से उठी जर्मनी!
जीवन में ग़म हो या ख़ुशी,
आसान हो या मुश्किले,
बढ़ते रहे हम सदा
सिखाती हमे जर्मनी!
अमेरिका के उद्योग में,
भारत के छोटे गाँव में,
दुनिया के कोने कोने में,
दिखती है तकनीक जर्मनी!
बटन दबाके हो हर काम,
ज्ञान-विज्ञान से जीवन आसान,
छाई विकास,ऐश्वर्य और ख़ुशी,
यूँही सदा रहे जर्मनी!
लोग सीधे और सच्चे,
अपराध का निशां नहीं,
मेहनत यहाँ पहचान है
सौ सौ नमन जर्मनी!
- अमिताभ रंजन झा
करकराती सर्द में,
बर्फीली चादर तले,
प्रकृति की आगोश में,
चलती रहे जर्मनी!
सूरज देर से जगे,
रात जल्द आये तो क्या?
किसी भी हाल में कभी
रूकती नहीं जर्मनी!
गर्मी के मौसम में
जल्द आ टपके सवेरा,
चाँद लेट लतीफ़ तो क्या?
शिकायत करती नहीं जर्मनी!
युद्ध ने था लुटा कभी,
पर हौसला न टूटा कभी!
कड़ी मेहनत और लगन से
फिर से उठी जर्मनी!
जीवन में ग़म हो या ख़ुशी,
आसान हो या मुश्किले,
बढ़ते रहे हम सदा
सिखाती हमे जर्मनी!
अमेरिका के उद्योग में,
भारत के छोटे गाँव में,
दुनिया के कोने कोने में,
दिखती है तकनीक जर्मनी!
बटन दबाके हो हर काम,
ज्ञान-विज्ञान से जीवन आसान,
छाई विकास,ऐश्वर्य और ख़ुशी,
यूँही सदा रहे जर्मनी!
लोग सीधे और सच्चे,
अपराध का निशां नहीं,
मेहनत यहाँ पहचान है
सौ सौ नमन जर्मनी!
- अमिताभ रंजन झा
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Saturday, November 20, 2010
हाड़ मांस का पुतला
ऐश्वर्या कैसे एक वर्ष की हो गयी कुछ पता ही नहीं लगा
इन बारह महीनो के अनुभव के आधार मेरे जीवन के पहले साल को व्यक्त करने की कोशिश
*************************
मै जग में जब आया
अपने साथ क्या लाया होगा?
हाड़ मांस का पुतला बस
और अकल जरा न पाया होगा!
मात्रु-गर्भ में नौ महीने
निश्चिन्ता से बिताया होगा!
कभी पलट कभी लात मार कर
माँ को बहुत सताया होगा!
प्रसव-पीड़ा की घड़ी में बेशक
माँ को बहुत रुलाया होगा!
ऑंखें भींच, मुट्ठी बाँध रो
आगमन-बिगुल बजाया होगा!
माँ ने अपने वक्ष लगा के
दुग्धपान मुझे सिखाया होगा!
दिन-रात सीने से लगा के
लोरी गान सुनाया होगा!
पिता ने अपने गले लगा के
आँगन गली घुमाया होगा!
दादा-दादी और सब लोगो ने
जी भर स्नेह लुटाया होगा!
पवन मल-मूत्र, थूक-लाड़ से मैंने
परिजनों को बहुत भिंगाया होगा!
जब मर्जी हो मैं खुद सोया
पर सबको हर रात जगाया होगा!
इसी लिए शायद सबने मुझको
सुई-टिका लगवाया होगा!
बदले में ताप और दर्द से
मैंने सबका चैन चुराया होगा!
तीन माह जब होने को होंगे
पहली किलकारी लगायी होगी!
उसी माह में लगता है
पहली बार बुदबुदाया होगा!
पांच माह में शायद
पहली करवट बदली होगी!
सात माह में चल घुटनों पर
सबको नाच नचाया होगा!
नवमे माह में दांत काट सभीको
नानी याद दिलाया होगा!
१२ माह में भाग भाग कर
घर को सर पे उठाया होगा!
मै जग में जब आया
अपने साथ क्या लाया होगा?
हाड़ मांस का पुतला बस
और अकल जरा न पाया होगा!
- अमिताभ रंजन झा
Poems dedicated to mother:
माँ मुझको कलेजे से लगाये रखना
माँ तू याद आती है
आंतकवादी की माँ
इन बारह महीनो के अनुभव के आधार मेरे जीवन के पहले साल को व्यक्त करने की कोशिश
*************************
मै जग में जब आया
अपने साथ क्या लाया होगा?
हाड़ मांस का पुतला बस
और अकल जरा न पाया होगा!
मात्रु-गर्भ में नौ महीने
निश्चिन्ता से बिताया होगा!
कभी पलट कभी लात मार कर
माँ को बहुत सताया होगा!
प्रसव-पीड़ा की घड़ी में बेशक
माँ को बहुत रुलाया होगा!
ऑंखें भींच, मुट्ठी बाँध रो
आगमन-बिगुल बजाया होगा!
माँ ने अपने वक्ष लगा के
दुग्धपान मुझे सिखाया होगा!
दिन-रात सीने से लगा के
लोरी गान सुनाया होगा!
पिता ने अपने गले लगा के
आँगन गली घुमाया होगा!
दादा-दादी और सब लोगो ने
जी भर स्नेह लुटाया होगा!
पवन मल-मूत्र, थूक-लाड़ से मैंने
परिजनों को बहुत भिंगाया होगा!
जब मर्जी हो मैं खुद सोया
पर सबको हर रात जगाया होगा!
इसी लिए शायद सबने मुझको
सुई-टिका लगवाया होगा!
बदले में ताप और दर्द से
मैंने सबका चैन चुराया होगा!
तीन माह जब होने को होंगे
पहली किलकारी लगायी होगी!
उसी माह में लगता है
पहली बार बुदबुदाया होगा!
पांच माह में शायद
पहली करवट बदली होगी!
सात माह में चल घुटनों पर
सबको नाच नचाया होगा!
नवमे माह में दांत काट सभीको
नानी याद दिलाया होगा!
१२ माह में भाग भाग कर
घर को सर पे उठाया होगा!
मै जग में जब आया
अपने साथ क्या लाया होगा?
हाड़ मांस का पुतला बस
और अकल जरा न पाया होगा!
- अमिताभ रंजन झा
Poems dedicated to mother:
माँ मुझको कलेजे से लगाये रखना
माँ तू याद आती है
आंतकवादी की माँ
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Friday, November 5, 2010
Happy deepavali! दीपावली की हार्दिक शुभकामना!
Dear friends,
Happy deepavali! दीपावली की हार्दिक शुभकामना!
May mother Lakshmi bless all with abundant of wisdom, health, wealth and harmony!
All we need is hope, courage and action to to make all our wish come true!
God bless Bihar!
God bless India!
God bless the world!
Warm regards,
Amitabh Jha
BRF
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