Saturday, March 30, 2013

ज़ुल्म सहने की हमको आदत है


ज़ुल्म सहने की हमको
हो चुकी बुरी आदत।
दिल रोता रहता है
हम हँसते जाते हैं।।
डर डर के जीना भी
बन जाती है ताक़त।
दिल आंशु बहाता है
हम मुस्कुराते हैं।।

लाभ हानि के गणित में
रही अपनी बुरी हालत।
सब हमसे नफा उठाते हैं
हम घाटा सहते जाते हैं।।
हर शख्स में बसा मालिक
ये सोच करे सबकी इबादत।
वो मजाक उड़ाते हैं
और हम टालते जाते हैं।।

खुदा का खौफ नहीं हमको
शख्त है उनसे मोहब्बत।
बस खुदी से घबराते हैं
और बेखुदी से डरते हैं।।
रास आती नहीं हमको
एक पल भी कभी बरकत।
बेगानों से नहीं हम अपनों के
बिछुड़ जाने से डरते हैं।।

इंसानों से नहीं डरते उनके
अंदर के हैवानियत से डरते हैं।
रंग बदलते गिरगिट से नहीं डरते
पर बदलते इंसानों से डरते हैं।।
नापाक हस्तियों के
हिफाजत में लगे हैं लोग।
हम देश के लोगो की हादसों में
शहादत से डरते हैं।।

कोई लुट रहा है देश
दोनों ही हाथ से।
हम अपने हाथ के लहसन
के कालिख से डरते हैं।।
हम अच्छों से नहीं बुरो की
वकालत से डरते हैं।
चोरो से नहीं हम सच्चों
की गैरत से डरते हैं।।

झांक के देखता हूँ
उठी किसकी है मय्यत।
हम चंद लोगो की
सूरत से डरते हैं।।
तोड़ डाला है
घर हर आइना।
अपने अक्स में छुपे
बदसूरत से डरते हैं।।

- अमिताभ रंजन झा

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