Saturday, March 30, 2013

ग़ज़ल कैसे बनती है?


लोग पूछते हैं, ये सब लिख कैसे लेते हो?
ग़ज़ल कैसे बनती है?
चलिए आज ये राज खोल ही देते हैं।

ऐसा है ...

माथा काम नहीं करता
हमारी ऐसी हालत है।
दिल कहता जाता है
हाथें लिखती जाती हैं।।

आँखें बंद रहती हैं
इबादत होती जाती है।
शब्द पुष्प बंध-बंध कर
गजल गुंथती जाती है।।

आप और हम हैं
एक छोटे कश्ती में।
पांव आप के मेरे
एक नाप की जूती में।।

सुनने सुनाने का
रिवाज पुराना है।
कल ग़ालिब कहते थे
आज अपना जमाना है।।

मिर्ज़ा की बाते
हमें समझ न आती है।
आसान से लब्जों में
मेरी रूह गुनगुनाती है।।

औकात है जितनी
वही आजमाता हूँ।
चादर है जितनी
पांव फैलाता हूँ।।

भाषा के ठेकेदार
चोट करते हैं।
हंस कर कहते हैं
हम भाषा की लेते हैं।।

वो काम है उनका
वो तंज कस्ते हैं।
मेरा रंग चढ़ा उन पर
हम हँसकर कहते हैं।।

भाषाओँ का दुनिया में
इतिहास पुराना है।
शब्दों का भाषाओँ में
सदा आना जाना है।।

भाषा में थी लाली
ये सत्य गरल है।
पर बोल चाल की भाषा
कितनी सरल है।।

दिल से लिखता हूँ
अनुरोध करता हूँ।
कृपया सुन लें
मैं पाठ करता हूँ।।

मकड़जाल शब्दों से
कविता की बुनता हूँ।
आप उलझतें हैं
मैं भी उलझता हूँ।

हाल ऐ दिल अपनी
आपकी सुनाता हूँ।
दो पल साथ रहता हूँ
सुख-दुःख बताता हूँ।।

दिल में जो जज्बात
दुल्हन सी सजती है।
ग़ज़ल ऐसे बनती है
बस बन ही जाती है।।

------------------------- Old Version -----

लोग पूछते हैं, ये सब लिख कैसे लेते हो?
ग़ज़ल कैसे बनती है?
चलिए आज ये राज खोल ही देते हैं।

ऐसा है ...

माथा काम नहीं करता
हमारी ऐसी हालत है।
दिल कहता जाता है बस
और हाथें लिखती जाती हैं।।

आँखें बंद ही रहती हैं
इबादत होती जाती है।
शब्दों के फूल से बंधकर
गजल गुंथती जाती है।।

आप सब और हम भी हैं
एक ही छोटे कश्ती में।
पांव आप के और मेरे अंटे
एक नाप की जूती में।।

ये सुनने सुनाने का
रिवाज बड़ा पुराना है।
कल ग़ालिब कहते थे
आज हमारा जमाना है।।

मिर्ज़ा साहब की बाते
हमें समझ न आती है।
सीधे सादे लब्जों में
मेरी रूह गुनगुनाती है।।

औकात है जितनी अपनी
वही सदा आजमाता हूँ।
चादर है जितनी छोटी
उतने पांव फैलाता हूँ।।

उर्दू-हिंदी के धुरंधर
हमपर चोट करते हैं।
कहते हैं मुझसे हंसकर
हम उर्दू-हिंदी की बजाते हैं।।

मेरा रंग चढ़ा उनपर
हम हँसकर कहते हैं।
बोल चाल की भाषा में
भली भांति समझाते हैं।।

उर्दू-हिंदी का दिल बड़ा है
और इतिहास पुराना है।
देसज विदेसज का भी
हिंदी में ठिकाना है।।

हिंदी में लाली लगती थी
ये सत्य गरल है।
पर बोल चाल की जबान में
उर्दू-हिंदी कितनी सरल है।।

दिल के रिक्वेस्ट पे लिखता हूँ
आपसे रिक्वेस्ट करता हूँ।
थोडा एडजस्ट आप कर लें
मैं भी एडजस्ट करता हूँ।।

मकड़ी बनकर शब्दों की मैं
ताना बाना बुनता हूँ।
आप उलझतें हैं
मैं भी उलझता जाता हूँ।

हाल ऐ दिल कुछ अपनी
कुछ आपकी सुनाता हूँ।
दो पल साथ रहता हूँ
सुख-दुःख बताता हूँ।

आपसे मिले शाबाशी
मन की जाए सारी उदासी।
वाह वाह सुन आपसे
मैं यहीं गंगा नहाता हूँ।।

गया अमृतसर वैटिकन बेथलम
मथुरा काशी वैशाली वृन्दावन।
मक्का क़ाबा तिरुपति रामेश्वरम
हर तीर्थ का फल यही पाता हूँ।।

दिल में जो है जज्बात
दुल्हन सी सजती जाती है।
ग़ज़ल ऐसे बनती है
बस बन ही जाती है।।

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उनके लिए .. जो लिखना चाहते हैं ...
लिखना चालू करें। ....


जिस दिन किसी को भी
ऐसी दीवानगी हो जाए।
शब्दों के घेरे में घिड़े
न जागे और न सो ही पाए।।

समझ लेना की दुनिया में
एक और शायर ज़नाब आए।
कुछ उसकी सुनी जाए
कुछ अपनी कही जाये।

- अमिताभ रंजन झा

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